SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45 अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 वरांगचरित में प्रतिपादित राजा के गुण- वरांगचरित में धर्मसेन और वरांग आदि राजाओं का वर्णन किया गया है। इन गुणों को देखने से ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दि उपर्युक्त राजाओं के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वर्णन कर रहे हैं। इस दृष्टि से अच्छे राजा के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं राजा को आख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी, दृढ़ मैत्री रखने वाला, प्रमाद, अहंकार, मोह और ईर्ष्या से रहित, सज्जनों और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर मित्रों वाला, मधुरभावी, निर्लोभी, निपुण और बन्धु बान्धवों का हितैषी होना चाहिए। उसका आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार हो कि वह सौन्दर्य द्वारा कामदेव को, न्यायनिपुणता से शुक्राचार्य को, शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा इन्द्र को, दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गंभीरता तथा सहनशीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभाविक विनय से उत्पन्न उदार आचरणों एवं महान गुणों द्वारा वह उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैर की दृढ गाँठ बाँध ली हो। वह कुल, शील, पराक्रम, ज्ञान, धर्म तथा राजनीति में बढ़-चढ़कर हो । राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें, उसके मित्र समीप में हो और वह हर समय संबन्धियों पर आश्रित न रहे। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है, वही दूसरों को जगा सकता है। जो स्वयं स्थिर है, वह दूसरों की डगमग अवस्था का अन्त कर सकता है जो स्वयं नहीं जागता है और जिसकी स्थिति अत्यन्त डाँवाडोल है, वह दूसरों को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता है। राजा की कीर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कि वह न्यायनीति में पारंगत, दुष्टों को दण्ड देने वाला, प्रजा का हितैषी और दयावान् है। राजा राजसभा में पहिले जो घोषणा करता है, उसके विपरीत आचरण करना अनुपयुक्त तथा धर्म के अत्यन्त विरुद्ध है। इस प्रकार के कार्य का सज्जन पुरुष परिहास करते हैं। राजा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का इस ढंग से सेवन करे कि उसमें से किसी एक का अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित क्रम को अपनाने वाला राजा अपनी विजय पताका फहरा देता"। राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह प्रातः से संध्या समय तक पुण्यमय उत्सवों में व्यस्त रहे। अपने स्नेही बन्धु, बान्धव, मित्र तथा अर्थिजनों को भेंट आदि देता रहे। ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा की दृष्टि में प्रामाणिक होती है। अतः वह उस पर अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक आपत्तियों में भी कम नहीं होना चाहिए। संकट के समय व किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे अपने कार्यों का इतना अधिक ज्ञान हो कि कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, शत्रुपक्ष, आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रु के स्वभाव को जानने में देर न लगे। जिस राजा का अभ्युदय बढ़ता है, उसके पास अच्छे मित्र, बान्धव, उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ आदि हर्ष तथा उल्लास के उत्पादक नूतन साधन अनायास ही आते रहते हैं। राजा का यह कर्त्तव्य है कि राज्य में पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुड्ढों तथा स्त्रियों, अत्याधिक काम लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy