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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
भी कार्य के अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, अन्धों, दीनों तथा भयंकर रोगों में फंसे हुए लोगों की सामर्थ्य, असामर्थ्य तथा उनकी शारीरिक, मानसिक दुर्बलता आदि का पता लगाकर उनके भरण पोषण का प्रबन्ध करे। जिन लोगों का एक मात्र कार्य धर्मसाधना हो, उसे गुरु के समान मानकर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले किए गए वैर को क्षमा याचना कर शान्त करा दिया हो, उनका अपने पुत्रों के समान भरण पोषण करे। किन्तु जो अविवेकी हों तथा घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ चढ़कर चलें अथवा दूसरों को कुछ न समझें, उन लोगों को अपने देश से निकाल दें। जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभाव से कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें, अपने कर्तव्यों आदि को उपयुक्त समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा पुरस्कार आदि देने में वह अत्यन्त तीव्र हों। राजा को प्रजा का अत्यधिक प्यारा होना चाहिए। वह सब परिस्थितियों में शान्त रहे और शत्रुओं का उन्मूलन करता हुआ अपनी त्रुटियों का बढ़ाता रहे।''
राजा के उपर्युक्त सभी गुणों को देखने से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने जैनधर्म के प्रायः सभी विशिष्ट सिद्धांतों को, जो कि श्रावक पालन कर सकता है, राजाओं के जीवन में उतारने का प्रयत्न किया है। इन सभी सिद्धांतों में प्रेम, मैत्री, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा, मृदुभाषण, शील, प्रबुद्धता, त्रिवर्ग का अविरोध रुप से सेवन, पुण्यार्जन, दान-आहारदान, औषधिदान, अभयदान, ज्ञानदान, आश्रयदान, बड़ों के प्रति सम्मान, पुरस्कार देना, कुल की रक्षा, आत्मानुपालन, दरिद्रता निवारण, कृषि को समुन्नत करना, श्रमिकों की रक्षा करना आदि प्रमुख है। इनका पालन करने से राजा और प्रजा का व्यक्तित्व परिष्कृत होता है ओर जीवन में सुख-शांति होती है। सब प्रकार के उपद्रव दूर होते हैं और समृद्धि वृद्धिंगत होती है। संदर्भः 1. आचार्य विद्यासागर प्रवचनामृत पृ.9, प्रकाशक- श्री चन्द्रप्रभ दि0 जैन मंदिर (अतिशय क्षेत्र)
फिरोजाबाद (उ.प्र.) प्रथमावृत्ति 2. क्षत्रचूड़ामणि 11/
8 3 . उत्तर पुराण 52/40 4. डॉ. विजयलक्ष्मी जैन: जैन राजनैतिक चिंतनधारा पृ. 31 प्रकाशक- आचार्य ज्ञानसागर
वागर्थविमर्श केन्द्र, सेठ जी की नसियाँ, ब्यावर (राज.) प्रथम संस्करण। 5. पुखराज जैन राजनीतिविज्ञान के सिद्धांत पृ. 20 6. पद्मचरित 3/49-63 प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली 7. वही 33/74
8. वही 3/85 9. वही 3/88
10. आचार्य जिनसेनः आदिपुराण 16/251 11. आदिपुराण 16/252-255
12. वही 4/169 13. नीतिवाक्यामृत 1/1
14. वही 2/1 15. वही 3/1
16. वही 1. मंगलाचरण 17. आचार्य जिनसेन : हरिवंशपुराण 17/54 18. वही 17/94