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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
निष्कर्ष -
1. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है, वीतरागता का मार्ग है। अतः रत्नत्रय से संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त होता है।
2. कर्मो का आस्रव व बंध रत्नत्रय के प्रतिपक्षभूत राग, द्वेषादि काषायिक भावों से होता है।
3. पुण्य प्रकृतियों का बंध भी रत्नत्रय के कारण नहीं होता है, अपितु अवशिष्ट रागांश के कारण होता है।
4. रत्नत्रय का पालन राग-द्वेषादि को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इससे बंध नहीं होता, अपितु बंध का अभाव होता है। अतः सिद्ध है कि रत्नत्रय बंधक नहीं, अबंध क है।
संदर्भः
1. तत्त्वार्थ सूत्र 1/1 2. बन्धस्स दव्वभावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा ते बंधया णाम। धवल पुस्तक 14 पृ. 2 3. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. 3 पृ.175 4. पुरूषार्थ-देशना पृ.470, 472, 473, 475, 476, 477, 478, 482, 484, 485 एवं 488 5. मोहतिमिरापहरणे दर्शन- लाभदवाप्त संज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु:147।। रत्नकरण्डक श्रावकाचार 6. चारित्तं खलु धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।7।।प्रवचनसार 7. प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विधय:।18/3|| तत्त्वार्थ सूत्र 8. पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसभेददो दु चदुविधो बंधो।
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति।।33। द्रव्यसंग्रह 9. योगात्प्रदेश बंधः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात्।।
दर्शनबोचरित्रं न योगरूपं कषाय रूपं च।।215।। पुरूषार्थ-सिद्वयुपाय 10. औपशमिक-क्षायको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। 2/1। तत्त्वार्थ सूत्र 11. सवार्थसिद्धि 1/7 पृ. 21 12. तत्त्वार्थ सूत्र 2/4-5 13. राजवार्तिक 1/7 पृ. 41 14. सम्यक्त्व-चारित्राभ्यां तीर्थकराहार-कर्मणो बन्धः।
योअप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोपि दोषाय।।217।। पुरूषार्थ-सिद्धयुपाय 15. सति सम्यक्त्व चारित्रे तीर्थंकराहारबन्धकौ भवतः।
योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम।।218।। पुरूषार्थ-सिद्धयुपाय
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