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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
तीर्थकर दिव्यध्वनि का वैशिष्ट्य
-डॉ. अशोक कुमार जैन महापुराण में गर्भान्वय क्रिया के वर्णन में तीर्थकर भावना का वर्णन है
"मैं एक साथ तीनों लोकों का उपकार करने में समर्थ बनूं" इस प्रकार की परम करुणा से अनुरंजित अन्तश्चैतन्य परिणाम प्रतिसमय वर्धमान होने से परोपकार का जब आधिक्य होता है उससे दर्शन विशुद्धि आदि 16 भावनायें होती हैं जो परम पुण्य तीर्थकर नामकर्म के बन्ध में कारण होती हैं। ये भावनायें सभी के नहीं होतीं, इनका होना दुर्लभ है। तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने के पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर बिना इच्छा के भगवान अर्हन्त की वाणी खिरती है। चूंकि वे वीतराग होते हैं अत: वहां विवक्षा-बोलने की इच्छा नहीं होती। कहा भी है
यत्सर्वात्त्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयं, नो वाञ्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम्। शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकीर्णितं कर्णिभिः, तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः॥ समवशरण स्तोत्र-30
जो समस्त प्राणियों के लिए हितकर है, वर्णसहित नहीं है, जिसके बोलते समय दोनों ओष्ठ नहीं चलते, जो इच्छा पूर्वक नहीं है, न दोषों से मलिन है, जिनका क्रम श्वास से रुद्ध नहीं होता, जिन वचनों को पारस्परिक वैरभव त्याग कर प्रशान्त पशु गणों के साथ सभी श्रोता सुनते हैं, समस्त विपत्तियों को नष्ट कर देने वाले सर्वज्ञ देव के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।
आचार्य जिनसेन स्वामी ने महापुराण में लिखा हैदिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मधरवानुकृतिर्निरगच्छत्। भव्यमनोगतमोहतमोहन न्नातदेष यथैव तमोऽरिः। एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहुश्च कुभाषाः। अप्रतिपत्तिमास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना। एकतयोऽपि तथैव जलौघश्चित्ररसौ भवति द्रुमभेदात्। पात्र विशेषवशाच्च तथा मयं सर्वविदो ध्वनिराय बहुत्वम्।। एकतयोऽपि यथा स्फटिकाश्मा यदयदुपाहितमस्य विभासम्। स्वच्छतया स्वयमप्यनुधत्ते विश्वबुधोऽपि तथा ध्वनिरूच्चैः॥ देवकृतो ध्वनिरि त्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात्॥ साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात्॥ -महापुराण 23/69-73