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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 __भगवान के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली दिव्यध्वनि निकल रही थी। यद्यपि वह एक प्रकार की थी तथापि सर्वभाषारूप परिणमन करती थी और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्वों का बोध करा रही थी आगे आचार्य ने लिखा है कि कोई लोग ऐसा कहते हैं कि दिव्यध्वनि देवों के द्वारा की जाती है परन्तु ऐसा कहना मिथ्या है क्योंकि ऐसा कहने में भगवान् के गुण का घात होता है। इसके सिवाय दिव्यध्वनि साक्षर होती है क्योंकि लोक में अक्षरों के समूह के बिना अर्थ का ज्ञान नहीं होता। चन्द्रप्रभकाव्य में दिव्यध्वनि के विषय में लिखा है सर्वभाषास्वभावेन ध्वनिनाथ जगद्गुरुः। जगाद गणिनः प्रश्नादिति तत्त्वं जिनेश्वरः। 614॥ जगत के गुरु चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ने गणधर के प्रश्न पर सर्वभाषा स्वभाव वाली दिव्यध्वनि के द्वारा तत्त्वों का उपेदश दिया। हरिवंशपुराण में भगवान की दिव्यध्वनि को हृदय और कर्ण के लिए रसायन लिखा है- 'चेतः कर्ण रसायनं'। उन्होंने यह भी लिखा है जिनभाषाऽधरस्पंदमंतरेण विभिता। तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्।।615।। ओष्ठकंपन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की भाषा ने तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्यों की दृष्टि संबन्धी मोह को दूर किया था। दिव्यध्वनि के संबन्ध में जयधवला (पु.1पृ.126) में लिखा है- वह सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं (अनन्त पदार्थों का वर्णन है), जिसका शरीर बीजपदों से घड़ा गया है, जो प्रात: मध्याह्न और सांयकाल इन तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी तक निरंतर खिरती रहती है और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधरदेव संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को प्राप्त होने उनके प्रवृत्ति करने (उनके संशयादि को दूर करने) का जिसका स्वभाव है, संकट और व्यक्तिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस (अध्ययनों के द्वारा) धर्मकथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार स्वावलम्बी दिव्यध्वनि है। तिलोयपण्णत्ति में इस दिव्यध्वनि के संबन्ध में वर्णन है कि यह 18 महाभाषा 700 लघुभाषा तथा और भी संज्ञी जीव जीवों की भाषा रूप परिणत होती है। यह तालु, दन्त, ओष्ठ और कण्ठ की क्रिया से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को उपदेश देती है। भगवान की दिव्यध्वनि प्रारंभ में अनक्षरात्मक होती है, इसलिए उस समय केवली भगवान के अनुभय वचन योग माना गया है। पश्चात् श्रोताओं के कर्ण प्रदेश को प्राप्त कर सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने से केवली भगवान के सत्य वचन योग का सद्भाव भी आगम में माना है। प्रश्न- सयोग केवली की दिव्यध्वनि को किस प्रकार सत्य अनुभय वचन योग कहा
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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