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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 25 जाती है। यहाँ पर भी जो भूतार्थ को निश्चय नय कहा है उससे अशुद्ध निश्चयनय ही ठीक लगता है क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से तो जीव त्रिकाल शुद्ध सिद्ध ही है। ऐसे ही प्रमाण नय आदि भी छठे गुणस्थान तक प्रयोजनीभूत ही हैं।' इस प्रकार से भावार्थ और विशेषार्थ लिखकर माता जी ने इस टीका को सर्वजन बोध्य बना दिया इसीलिए जबसे यह टीका प्रकाश में आयी स्वाध्यायियों ने इसे स्वाध्याय का विषय बनाया है। इसमें गाथाओं का पद्यानुवाद भी अपना महत्व रखता है। लेखिका ने काव्य रचना के माध्यम से पूजा साहित्य की जो अभिवृद्धि की है, वैसी अद्यावधि अन्य किसी कवि या कवियित्री के द्वारा नहीं हुई है। अध्यात्म ग्रंथों का पद्यानुवाद भी अनूठा है, जो गाथाओं के पूर्ण अर्थ को प्रगट करता है। टीका में अन्य मतों का पक्ष रखते हुए उनका खण्डन भी बड़ी कुशलता से किया है। यद्यपि श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य अजीवाधिकार के प्रारंभ में पांच गाथाओं में अन्य मतावलम्बियों की आत्माविषयक मान्यताओं को दर्शाते हैं आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति भी उन्हें स्पष्ट करती हैं किन्तु पांचों गाथाओं का सार संक्षेप में आर्यिकाश्री ने विशेषार्थ द्वारा दर्शाकर आत्माविषयक मान्यताओं को सहज में बता दिया। जैसे गाथा में आचार्य देव ने पूर्व पक्ष की तरफ से आठ मान्यताएँ रखी हैं 1. रागद्वेष आदि विभाव परिणाम ही जीव है। 2. कर्म ही जीव है, 3. तीव्र-मन्द अनुभाग से सहित परिणामों की परंपरा ही जीव है, 4. शरीर रुप नो कर्म ही जीव है, 5 पुण्य- पापकर्मों का समूह ही जीव है, 6. साता असातारूप से सुख-दुख का अनुभव ही जीव है, 7. आत्मा और कर्म ये दोनों मिलकर ही जीव हैं, 8. आठों कर्मों का संयोग ही जीव है।' इस प्रकार से अन्य मान्यताओं को बताकर आचार्यदेव की कथनी को सरल शब्दों में बता दिया है कि जीव और पुद्गल अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाही होकर संसारी बने हुए हैं विकास सहित अनेक अवस्थाओं में परिणमन करते हैं। इत्यादि रूप से जीव-अजीव अधिकार संबन्धी सभी गाथाओं को स्पष्ट कर भेद विज्ञान को समझा दिया है। व्यवहार-निश्चय की परस्पर मैत्री रूप मीमांसा अद्भुत है। निश्चयाभासी एकान्तवादियों के लिए आंखें खोलने वाली है उनके मिथ्यात्व को गलाकर सम्यक्त्व की ज्योति प्रदान करने वाली है। इस "ज्ञानज्योति" टीका में शुद्धोपयोग की स्वामित्व विवक्षा पर विशेष चिंतन है। इसमें अनेक गाथाओं के विशेषार्थों में इस विषय को विस्तार से खोला गया है। शुद्धात्म स्वभाव में तल्लीन रहने वाला ही शुद्धोपयोगी होता है। शुद्धोपयोग के बल से ही आस्रवभवों को नष्ट करता है। समयसार की कर्तृकर्माधिकार की 78वीं गाथा में स्पष्ट किया गया है कि शुद्धोपयोग के द्वारा ही जीव विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ? ममता रहित हूँ और ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अतः इसी स्वभाव में स्थित होता हुआ एवं चैतन्य के अनुभव में लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादि समस्त आस्रव भावों का क्षय करता हूँ। आचार्य जयसेन ने भूताविष्ट और ध्यानाविष्ट दृष्टान्तों द्वारा समझाया है कि जैसे किसी पुरुष के भूत आदि ग्रह लग गया हो तो वह भूत में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ मनुष्य से न करने योग्य बड़ी
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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