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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
भारी शिला उठाना आदि रूप आश्चर्यजनक व्यापार को करता हुआ दीख पड़ता है, उसी प्रकार यह जीव भी वीतरागमय परम सामायिक भाव में परिणत होने वाला शुद्धोपयोग है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के न होने से कामक्रोधादिभावों में प्रवृत्ति करने वाला होता है। और भेदज्ञान होने पर शुद्धात्मा के सुखानुभवरुप स्वसंवेदन ज्ञान वाला होता है।'
वर्तमान में कुछ लोग अविरत सम्यक्त्व के काल में शुद्धात्मा के सुखानुभव रूप स्वसंवेदन का समर्थन करते हैं उन्हें समझाते हुए कहा है कि स्वसंवेदन भी सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार का है अर्थात्- विषय सुखानुभव के आनन्दरूप स्वसंवेदन ज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध सराग है किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभवरूप स्वसंवेदन ज्ञान होता है, वह वीतराग स्वसंवेदन है अतएव यह सर्वत्र माना चाहिए कि वीतराग स्वसंवेदन शुद्धोपयोग के बिना संभव नहीं है और शुद्धोपयोग अप्रयत्न निर्विकल्प समाधि के बिना संभव नहीं है।
शुद्धात्मा की भावना और शुद्धोपयोग को एक मानकर वर्तमान में अनेक लोग भ्रमित हो रहे हैं उनके भ्रम का निवारण करते हुए कहा है कि शुद्धात्मा की भावना व शुद्धोपयोगी में इतना ही अंतर है जितना की विद्यार्थी और अध्यापक में है। शुद्धात्मा की भावना अलब्धोपलिप्सा नहीं प्राप्त हुई वस्तु के प्राप्त करने की उत्सुकता रूप होने से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के भी होती है किन्तु शुद्धोपयोग तो शुद्धात्मा से तन्मयता रूप होता है जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है “जिसने निज शुद्धात्मा आदि पदार्थ और सूत्र को भलीभाँति जान लिया है। जो संयम और तप से युक्त है। राग रहित है जिसको सुख-दुःख समान हैं, वह शुद्धोपयोगी श्रमण कहा गया है।'
इससे स्पष्ट है कि काम क्रोधादि विकारी भावों का मूलोच्छेद करने वाला ही शुद्धोपयोगी है। गृहस्थ को विकारों का मूलोच्छेद कदापि संभव नहीं है, क्योंकि वह कौटुम्बिक कार्यों में फंसा होकर निर्द्वन्दता प्राप्त करने में कैसे समर्थ हो सकता है? अतएव अविरत सम्यग्दृष्टि को शुद्धोपयोगी कहना आगम ओर अध्यात्म का अपलाप है। ___ आर्यिकाश्री ने ज्ञानी के स्वरूप को प्रतिपादित करने वाली गाथा को भावार्थ के द्वारा सहज बोधगम्य बना दिया अर्थात्-जब कर्ता-कर्म का संबन्ध छूट जाता है, तब वह आत्मा ज्ञानी हो जाता है। यह पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानी के होता है उससे पूर्व श्रेणी में महामुनि निर्विकल्प ध्यान में अनुभव करते हैं। वे मात्र ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं शिर पर अंगीठी जला देने पर भी उन्हें भान नहीं होता है, वे ही ज्ञानी कहलाते हैं। इससे पहिले श्रद्धान मात्र से अपने आपको ज्ञाता द्रष्टा समझते हैं, विश्वास करते हैं किन्तु राग-द्वेष आदि रूप से तद्रूप परिणत हो जाने से ज्ञानी नहीं हो पाते हैं। कलशकाव्य के द्वारा भी यही बताया गया है।
इस प्रकार उदाहरण आदि के माध्यम से समयसार में वर्णित विषयों को माता जी ने अनूठे ढंग से स्पष्ट किया है। अध्यात्म प्रधान समयसार की यह हिन्दी टीका माता जी की गहरी अध्यात्मिक अभिरुचि की दिग्दर्शिका है। इसमें माता जी ने अपनी बुद्धिबल के आधार पर सूक्ष्म से सूक्ष्म आध्यात्मिक विषयों को जनसामान्य के लिए ग्राह्य बना दिया है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव, आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि, आचार्य श्री जयसेन स्वामी द्वारा