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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अनेक धाराओं का संगम है। इसीलिए उसमें अनेक विरोधी धारायें परिदृष्ट हो रही हैं। इन्हीं के संगम से प्राचीन उपनिषदों की रचना हुई। अत: उपनिषद् पूर्णत: वैदिक नहीं है क्योंकि वैदिक क्रियाकाण्ड के विरुद्ध हैं। मुण्डकोपनिषद में तो वेदों को अपराविद्या कहा है, जिसे शंकराचार्य ने "अविद्या" माना है, जबकि ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या, जिसकी मूल-भित्ति पर श्रमण संस्कृति आधारित है, उस 'परा' विद्या को उत्कृष्ट विद्या कहा है। इसीलिए उपनिषद् काल में अध्यात्म विद्या के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी, तथा प्रचार-प्रसार बढ़ा।
"संन्यास" की मूल अवधारणा और परंपरा को श्रमण संस्कृति की देन कहा जाता है। क्योंकि आत्मजिज्ञासा के बिना संन्यास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। उपनिषदों से प्रारंभ आत्मजिज्ञासा पर आधारित संन्यास श्रमणों की दीर्घकालीन परंपरा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है और यह आत्मविद्या भी श्रमण परम्परा की मूल धरोहर है। क्योंकि वैदिक काल में तो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ- ये दो का ही व्यवस्था-क्रम मिलता है। जबकि संन्यास-व्यवस्था भी उपनिषद् काल से ही मान्य दिखलाई देती है। श्रमण जैन धर्म में आरंभ से ही संन्यास नितांत आत्मवाद पर आधारित है। इसीलिए आचारांग (1.1.1.5) में कहा गया है कि आचार की आराधना वही कर पाता है, जो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है। ___ मुण्डकोनिषद् (1/2/7-11) के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म और आत्मा विषयक चिन्तन के प्रति आकर्षण से यह स्वाभाविक था कि यज्ञ-याग और क्रिया काण्ड के प्रति श्रद्धा में कमी आये। क्योंकि चिंतकों ने उसे "अपरा विद्या" या "अविद्या" तक कह दिया था और “परा विद्या" को ज्ञान-विद्या, आत्म-विद्या, ब्रह्म विद्या, योग विद्या कहकर उसे यज्ञ-यागदि से भी श्रेष्ठ कह दिया गया था। कठोपनिषद् (1/2/2-3) में यही बात "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेध्या न बहुना श्रुतेन"- इस रूप में कही गयी है।
जब इस तरह की विचार-धारायें आगे बढ़ी तो वेदों के अपौरुषेयत्व, अनादित्व आदि के विषय में विरोधी स्वर उठने लगे। ये स्वतंत्र विचारक अतीन्द्रिय विषयों पर एकान्त-शान्त-कान्त-कानन में विचार करते और अधिकांश समय मौनपूर्वक चिंतन में लीन रहते थे। इसीलिए ऐसे साधनारत स्वतंत्र चिंतक "मुनि" कहलाने लगे। वेदों में भी ऐसे वातरसना चिन्तकों को "मुनि" कहा गया है, जो कि श्रमण संस्कृति के ही प्रतिनिधयों के रूप में प्रतिष्ठित थे।
वन में रहने वाले ऐसे मुनियों का जीवन साधना, तपश्चरण, अहिंसा, आर्जव, सत्य, दानादि, सिद्धान्तों से ओतप्रोत था। हम वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो उसी से सिद्ध होता है कि यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारंभ से ही होता रहा। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञ-विरोधी भी कहा गया है। यतिवर्ग यज्ञ-विरोधी थे। इन्द्र ने उसे सालावृकों को समर्पित किया था। (ताण्ड्यमहाब्राह्मण(13/4) इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे, जिन्होंने वैदिकधारा को प्रभावित किया था। श्रमण-(जैन-बौद्ध) साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञविरोधी धारणा का परिणाम है। श्रमण परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग दृष्टव्य हैं। उस समय श्रमण यज्ञ के