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________________ 94 अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 को संबोधित किया है कि द्रव्यलिंग मात्र से ही संतोष मत करना किन्तु द्रव्यलिंग के आधार से निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि रूप भावना को प्राप्त करने की चेष्टा करना। यहां द्रव्यलिंग का निषेध नहीं किया किन्तु भावलिंग रहित द्रव्यलिंग का निषेध किया है। इस प्रकार भावलिंग से रहित मात्र द्रव्यलिंग से मोक्ष नहीं होता किन्तु जो भावलिंग सहित हैं उनका वहां द्रव्यलिंग सहकारी कारण है। टीका में एक प्रश्न उठाया है कि केवलज्ञान तो शुद्ध होता है और छद्मस्थों का ज्ञान अशुद्ध, वह अशुद्ध रूप ज्ञान शुद्धरूप केवलज्ञान का कारण नहीं हो सकता। स्याद्वाद दृष्टि से समाधान देते हुए आ0 श्री जयसेन जी कहते हैं कि 'ऐसा नहीं है, छद्मस्थ का ज्ञान कथंचित्, शुद्ध, कथंचित अशुद्ध होता है। यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा शुद्ध नहीं होता तथापि मिथ्यात्व और रागादिरहित होने से वीतराग सम्यकत्व चारित्र सहित होने से वह शुद्ध होता है। अभेदनय से वह छद्मस्थ सम्बन्धी भेदज्ञान आत्मस्वरूप ही होता है इसलिए एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञान के द्वारा सकलदेश व्यक्तिरूप केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है। उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि समयसार की टीका में आ. जयसेन जी की सर्वत्र स्याद्वाद दृष्टि है और यही कारण है कि उनकी यह व्याख्या सर्व सामान्य ज्ञानियों के लिए भी रहस्य से अवगत होने के लिए उत्कृष्ट व सहज ज्ञानगम्य बन गई है। नय प्रमाण आदि आगमज्ञान से युक्त अभ्यासी के लिए समयसार जी की यह टीका सहज ही हृदयंगम हो जाती है क्योंकि अनेकान्तवादी को अनेकान्त भाषा शीघ्रता से पकड़ में आ जाती है, एकान्तवादी की ऐकान्तिक भाषा उसकी समझ से परे है। सन्दर्भ : 1. समयसार / ता. वृ. / स्याद्वादाधिकार 2. वही. 3. वही. 4. वही, उद्धृत 'सर्वथेतिप्रदुष्यान्ति पुष्यन्ति स्वादितीहते'। 5. समयसार गाथा 7 / ता. वृ. 6. वही /गाथा 10/ ता. वृ. 7. वही, नवपदार्थधिकार की पातनिका 8. वही /गाथा 15/ ता. वृ. 180/12, पटेलनगर, नई मण्डी , चौड़ी गली, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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