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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
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सापेक्षवाद का आश्रय लेकर कहा है कि इस ग्रंथ में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि का कथन यहां गौण है। यदि इसे भी यहां लिया जाये तो मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानवी जीव की अपेक्षा से अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी क्रोधादिजनित रागादिक नहीं है अतः मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबंधक है।
आध्यात्मिक ग्रंथ होने के कारण आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने अपनी व्याख्या में प्रधानता से वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया है तथा जघन्य सराग सम्यग्दृष्टि को गौण रखा है। गाथा 211-212 में भी 'रागी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता' का तात्पर्य कर्म प्रकृति की सापेक्षा से स्पष्ट किया है।
रागादि भाव का निमित्त बाह्य वस्तुएं हैं फिर भी बंध का कारण वह बाहृय वस्तु न होकर जीव का रागादि रूप अध्यवसान भाव है। तो फिर बाह्य वस्तु का सद्भाव बन्ध का कारण नहीं है इसलिए उसके त्याग की आवश्यकता भी नहीं है- इस शंका का समाधान गाथा 277 में दिया गया है कि रागादिक भाव नहीं होने देने के लिए बाहृय वस्तु के त्याग की आवश्यकता है। बाहृय वस्तु साक्षात् तो नहीं बल्कि परंपरा से बंध का कारण है। साक्षात् बंध का कारण तो अध्यवसान भाव ही हैं।
गाथा 351-354 की टीका में आचार्यश्री ने अपने स्याद्वाद पक्ष की सिद्धि करते हुए अनेकान्त व्यवस्था से बताया कि द्रव्यार्थिकनय से जो कार्य करता है, वही उस फल को भोगता है किन्तु पर्यायार्थिकनय से अन्य ही कर्ता है अन्य ही भोगता है क्योंकि जीव का स्वरूप नित्यानित्यात्मक स्वभाव वाला है। उन्हीं के शब्दों में - "जिसने मनुष्य जन्म में जो शुभाशुभ कर्म किया, वही जीव द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा देवलोक या नरक में जाकर उसके फल को भोगता है और पर्यायार्थिकनय से उसी भव की अपेक्षा बालकाल में किए गए कर्म को यौवनकाल में भोगता है या अति संक्षेप से अन्तर्महूर्त के बाद भोगता है, भवान्तर की अपेक्षा मनुष्य पर्याय में किए कर्म को देवपर्याय में जाकर भोगता है। इस प्रकार अनेकान्त की व्यवस्थारूप से स्वपक्ष की सिद्धि की।"
गाथा 360-372 की टीकाओं में जीव के रागादिक भावों के कर्ताकर्त्तापन की स्याद्वाद से सिद्धि की है। सारांश में पं. जयचन्द जी कहते हैं- जब तक स्व-पर का भेद विज्ञान न हो तब तक तो रागादिक अपने चेतन रूप भावकर्मों का कार्य मानो। भेद विज्ञान हुए पश्चात् (समाधिकाल में) शुद्ध विज्ञान धन समस्त कर्त्तापन का अभाव कर रहित एक ज्ञाता ही मानो। इस प्रकार एक ही आत्मा मे कर्ता और अकर्ता दोनों भाव विवक्षा के वश से सिद्ध होते हैं। यह स्याद्वाद जैनियों का है तथा वस्तु स्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है।
गाथा 438 में टीका में कहा गया है कि व्यवहारनय द्रव्यलिंग की मोक्षमार्ग में उपयोगी और निश्चयनय इस विकल्प को नहीं चाहता। यहां आचार्यश्री जयसेन जी कहते हैं कि यहां जो द्रव्यलिंग को निषिद्ध किया गया है उसे सर्वथा निषिद्ध मत मान लेना बल्कि यहां तो निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प रूप जो भावलिंग है उससे रहित होने वाले यतियों