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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 किया है (गाथा 116-119 ) - जैसे स्त्री-पुरूष दोनों के सहयोग से उत्पन्न पुत्र को विवक्षावश माता की अपेक्षा देवदत्त का पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, पिता की अपेक्षा देवदत्त का यह पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, परन्तु इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि विवक्षाभेद से दोनों ही ठीक हैं। वैसे ही जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व रागादि रूप भाव प्रत्यय अशुद्ध उपादान रूप अशुद्ध-निश्चय - नय से चेतन है क्योंकि जीव से संबद्ध हैं किन्तु शुद्ध उपादानरूप शुद्ध निश्चयनय से ये सभी अचेतन हैं। क्योंकि पौद्गलिक कर्म के उदय से हुए हैं। एकांत से न ये जीवरूप ही हैं और न पुद्गलरूप ही हैं किन्तु चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न कुंकुम की भांति ये संयोगज भाव हैं। वास्तव में तो सूक्ष्मरूप शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में इनका अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि ये अज्ञान द्वारा उत्पन्न हैं अतः कल्पित हैं।
गाथा 152 में पुण्य-पापाधिकार में आचार्य श्री ने कहा कि जब कर्म के हेतु, स्वभाव, अनुभव और बंधरूप आश्रय की अपेक्षा विचार किया जाये तो पुण्य व पाप में कोई भेद नहीं है। यद्यपि व्यवहार की अपेक्षा भेद है तथापि निश्चय नय से शुभ व अशुभ कर्मरूप कोई भेद नहीं है इसलिए व्यवहारी लोगों का पक्ष बाधित होता है ।
गाथा 173 में सम्यग्दृष्टि अबंधक होता है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि सम्यग्दृष्टि सराग और वीतराग भेद से दो प्रकार के हैं- वीतराग सम्यग्दृष्टि तो नवीन कर्मबंध को सर्वथा नहीं करता और सराग सम्यग्दृष्टि अपने अपने गुणस्थान क्रम से बंध-व्युच्छिति कर अगले- अगले गुणस्थान में उतने कर्मों का अवन्धक होता है अर्थात् निचले गुणस्थानापेक्षा अबन्धक और ऊपर के गुणस्थानापेक्षा बन्धक होता है। उन्होंने 'अबन्धक' का तात्पर्य सर्वथा अबन्धक नहीं अपितु ईषत् - बन्धक बताया है।
गाथा 180-183 की टीका में कहा है कि यह जीव रागादि भावों के अनुसार नूतन कर्मों को बाँधता है किन्तु अस्तित्व मात्र से पुरातन कर्म नये कर्म के बंधक नहीं होते अर्थात् बिना रागादिक भाव के द्रव्यकर्म विद्यमान होते हुए भी कर्मबन्ध के कारण नहीं होते इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक कहा गया है। आचार्य जिनसेन स्वामी ने टीका में सापेक्षित दृष्टि से स्पष्ट करते हुए कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि 43 प्रकृतियों की अबन्धक एवं 77 प्रकृतियों का स्वल्प स्थिति अनुभाग का बन्धक होते हुए भी संसार वास का छेद करता है।
यह आत्मा श्रुतज्ञान (मानसिक ज्ञान) में प्रत्यक्ष है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन स्वामी गाथा 198 की टीका में कहते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदनरूप भावश्रुतज्ञान केवलज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष ही है तथापि सर्वसाधारण को होने वाला इन्द्रिय मनोजनित सविकल्पज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस कारण आत्मा स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है परन्तु केवलज्ञानापेक्षा वह परोक्ष भी है। सर्वथा परोक्ष ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
गाथा 202 की टीका में सम्यग्दृष्टि का भोगोपभोग निर्जरा के निमित्त होता है। यहां भी