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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 से नवपदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं किन्तु निर्विकल्प समाधिकाल में वे ही अभूतार्थ / असत्यार्थ ठहरते हैं अर्थात् वे शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं होते। इस समाधिकाल में उन नव पदार्थों में शुद्ध निश्चयनय से एक शुद्धात्मा की झलकता है, वही निश्चय सम्यक्त्व है। 91 'अस्त्येव' यह कथन एकांतवाची है तो 'स्याद्वस्त्येव' यह कथन अनेकांतवाची है। स्याद्वाद को समझे बिना कोई अध्यवसान को कोई कर्म को, कोई कर्म के फल को कोई नोकर्म को, कोई अनुभाग को और कोई कर्मों के परस्पर संयोग से उत्पन्न जीव को मानते हैं, वस्तुतः व्यवहारनय से रागादि और वर्णादि ऐसे दोनों भाव जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से जीव के नहीं है। गाथा 62 की टीका में यह शंका उठाई है कि वर्णादि जो बाहर दिखते हैं उनका तो जीव से क्षीर के समान संयोग संबन्ध है उनको व्यवहार से जीव का कहना ठीक है किन्तु अभ्यन्तर में होने वाले रागादि भावों का ऐसा संयोग सम्बन्ध नहीं हो सकता । इनका सम्बन्ध जीव के साथ अशुद्ध निश्चयनय से कहना योग्य है? इसका आचार्य जयसेन स्वामी उत्तर देते हुए कहते हैं कि रागादि का सम्बन्ध जीव के साथ अशुद्ध निश्चयनय से है ऐसा जो कहा गया है वह तो आत्मा के साथ द्रव्यकर्म का सम्बन्ध बतलाने वाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा तारतम्य भेद दिखाने के लिए कहा गया है। वास्तव में अशुद्ध निश्चयनय भी शुद्ध निश्चय की अपेक्षा व्यवहार ही है, ऐसा समझना चाहिए। कर्तृकर्म महाधिकार में गाथा 79 की टीका में एक प्रश्न के उत्तर में आचार्यश्री बतलाते हैं कि जीव और अजीव दोनों ही कथचत परिणमनशील है। वह कहते हैं कि यह जीव शुद्ध निश्चयनय से अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता तथापि व्यवहार से कर्मों के उदय के वश लेकर राग द्वेषादिक-औपचारिक विकारी परिणामों को ग्रहण करता है। यद्यपि स्फटिक के समान यह जीव रागादि विकारी परिणामों को अंगीकार करता है फिर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है जबकि इसमें कथचत परिणामीपना सिद्ध है। आगे गाथा 81 की टीका में स्पष्ट कहा है कि यह आत्मा पुण्य-पापादि कर्मजनित विकारी भावों का निश्चयनय से अकर्त्ता तथा व्यवहारनय से कर्त्ता है। गाथा 109 की टीका में आया है कि अज्ञानी जीव अशुद्ध उपादान रूप अशुद्ध निश्चयनय से मिथ्यात्त्व, रागादि भावों का ही कर्त्ता होता है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का नहीं। आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्त्ता असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा गया है। इस कारण अशुद्ध निश्चयनय को निश्चय की संज्ञा दी गई है। तो भी शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वह व्यवहार ही है। आचार्य श्री ने इस प्रकार सापेक्षता को ध्यान में रखकर उपादान के दो भेद कर दिए अशुद्ध-उपादान, अग्नि के द्वारा गर्म किए हुए लोहे के पिण्ड के समान आत्मा के औपपाधिक भाव, तथा शुद्ध उपादान यथा स्वर्ण का अपना पीतत्त्व गुण, का सिद्ध जीव अपने अनंतज्ञानादि गुणों का है। जीव के रागादिभाव का कर्त्ता कौन है? कोई द्रव्यकर्म को इसका कर्त्ता कहते हैं तो कोई जीव को । स्याद्वाद की दृष्टि में तो कथंचित् जीव इनका कर्त्ता है, कथंचित् द्रव्यकर्म इनका कर्त्ता है। स्याद्वाद शैली में इसका समाधान आचार्य श्री जयसेन स्वमी ने निम्न प्रकार
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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