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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 दिखती है फिर भी वस्तु का यथार्थ बोध हो जाता है क्योंकि विवक्षित नय में वस्तु वैसी ही है। जैसे पुत्र की दृष्टि में वह पिता ही है किन्तु पिता में जो पुत्रवत्, पतित्व आदि के धर्म विद्यमान हैं, वे पुत्र की दृष्टि में गौण होते हैं। जो पुत्र है वह पिता भी है, पति भी है-इस प्रकार नय विवक्षा में ऐसा मानने पर कुछ भी विरोध नहीं आता है।
वस्तुतः शब्द में सीमित शक्ति है। जितना जाना जा सकता है, उतना कहा नहीं जा सकता। इसका कारण यह है कि जितने ज्ञान के अंश हैं, उन ज्ञानांशों के वाचक न तो उतने शब्द हैं और न उनको कह डालने की शक्ति जिहवा में है। अत: जिसके बारे में आप कहते हैं तो एक समय में उसकी एक बात कह सकते हैं, उस समय अन्य अनेक बातें कहने से छूट जाती हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बातें (गुण) उनमें नहीं हैं हैं तो अवश्य किन्तु गौण रुप से विद्यमान हैं। जैसे एक स्त्री में मां, बेटी, पत्नी, बहिन आदि अनेक गुण विद्यमान हैं परन्तु वह अपनी बेटी की अपेक्षा माँ ही है, अन्य नहीं जो कि यथार्थ है। यदि उसमें पुत्री, पत्नी, बहिन आदि का परिचय (गुण) सर्वथा छोड़ दिया जाये तो उसका परिचय अधूरा रहेगा। इस कमी या अधूरेपन को मिटाने के लिए ही आचार्यों ने 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया है। 'स्यात्' शब्द सहित कथन करना स्याद्वाद है ऐसा सिद्ध होता है। जो बात कही जा रही है वह किसी एक अपेक्षा से है, अन्य अपेक्षा या अभिप्राय से उसे अन्य प्रकार भी कहा जा सकता है। इस प्रकार 'स्याद्वाद' हर तरह के विसंवाद समाप्त कर वस्तु तथ्य को प्रकट करता है।
आचार्य जयसेन स्वामी बारहवीं शताब्दी के विद्वान हैं। समयसार के अतिरिक्त प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर आपने तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इनकी यह टीका सरल एवं हृदयग्राही तो है ही, अध्यात्म शास्त्रों के रहस्य खोलने में भी समर्थ है क्योंकि इन्होंने अपेक्षाओं की अपेक्षा रखकर स्पष्ट किया है। पीठिका अधिकार में स्याद्वाद
प्रारंभ में ही समुदाय पातनिका के अन्तर्गत आचार्यश्री ने भेदनय व अभेदनय की अपेक्षा रत्नत्रय का, निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा श्रुतकेवली का तथा 'ववहारोअभूदत्थो' गाथा में निश्चय व व्यवहारनय का वर्णन किया है। नयापेक्षा पदार्थ वैसा ही है, अन्यरुप नहीं है। यथा शुद्ध निश्चयनय में जीव ज्ञायकमात्र है, शुद्ध चैतन्य स्वभाव ही है किन्तु व्यवहार नयापेक्षा भेदरूप है। निश्चय व ववहार श्रुतकेवली का कथन करते हुए कहा कि 'जो भावश्रुत रूप स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा केवल अपनी शुद्धात्मा को जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है और जो केवल बहिर्विषयक द्रव्यश्रुत के विषयभूत पदार्थों को जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली होता है।
सम्यक्त्व का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि 'जीवादि नवपदार्थ जब भूतार्थनय से जाने जाते हैं तब ये ही अभेदोपचारनय से सम्यकत्त्व के विषय होने के कारण व्यवहार-सम्यकत्व के निमित्त होते हैं। निश्चयनय से अपने शुद्धात्मा का परिणाम ही सम्यकत्व है। उन्होंने स्पष्ट किया कि तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए प्रारंभिक शिष्य की अपेक्षा