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आचार्य श्री जयसेन की दृष्टि में स्याद्वाद (समयसार के संदर्भ में)
- डा. सुपार्श्व कुमार जैन
अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। "स्यात्कथंचित् विवक्षित प्रकारेण अनेकान्तरुपेण वंदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वाद:"- अर्थात् स्यात् या कथंचित् विवक्षित प्रकार से अर्थात् अपनी विवक्षा के लिए हुए अनेकान्त रूप से बोलना, कथन करना स्याद्वाद कहलाता है। इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि सभी वस्तुएं अनेकान्तमय है। भगवज्जिनेन्द्रदेव का यह शासन संपूर्ण वस्तुओं को अनेकान्तात्मक ही कहता है। प्रत्येक वस्तु पदार्थ में अनन्त धर्म होते हैं, इस प्रकार अनन्त धर्मी वस्तु में वे धर्म पृथक्-पृथक् व एक-एक ही हैं। जब पदार्थों में अनेक धर्मों का अस्तित्व विद्यमान है तो उसका निषेध कैसे किया जा सकता है ? अनेकान्त दर्शन इसी सद्भूत मान्यता पर आधारित है। उस अनेकान्त को व्यक्त करने का नाम स्याद्वाद है, अत: उसे अनेकान्तवाद भी कहा जा सकता है। सप्तभंगी इसी को व्यक्त करने की शैली है, अतः अनेकान्तवाद, सप्तभंगी इसी स्याद्वाद के रुपांतर ही हैं।
अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री कहते हैं- “एक वस्तुनिवस्तुतत्वनिष्पादक अस्तित्वनास्तित्वद्वयादिस्वरूपपरस्परविरूद्धसापेक्षशक्तिद्वयं यत्तस्य प्रतिपादनं स्यादनेकान्तो भण्यते- "- एक ही वस्तु में वस्तुत्व को निष्पन्न करने वाली अस्तित्व-नास्तित्व सरीखी दो परस्पर विरूद्ध सापेक्ष शक्तियों का जो प्रतिपादन किया जाता है, उसका नाम अनेकान्त है। इस प्रकार वस्तु में एक समय अनेको क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में भली प्रकार प्रतीति के विषय हैं। जो वस्तु किसी अपेक्षा नित्य प्रतीत होती है तो वही वस्तु किसी अन्यापेक्षा अनित्य भी प्रतीत होती है। स्वयं आचार्य श्री जिनसेन कहते हैं- कि "आत्मा ज्ञानरूप से तद्रूप है तो ज्ञेयरूप से वही अतद्रूप है, द्रव्यार्थिकनय से एक है तो पर्यायार्थिकनय से वही अनेक है। स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप चतुष्टय के द्वारा जो सद्रूप है, वही पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप चतुष्टय के द्वारा असद्रूप है, द्रव्यार्थिकनय से नित्य है तो पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। पर्यायार्थिकनय के द्वारा भेदात्मक है तो द्रव्यार्थिकनय के द्वारा वही अभेदात्मक है इत्यादि अनेक धर्मवाला आत्मा है। इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्मों को एकान्त दृष्टि से मानें तब तो ये पारस्परिक विरूद्ध हो जाते हैं किन्तु आचार्य समन्तभद्र स्वामी के अनुसार यदि स्यात् अर्थात् कथंचित् रूप से इन्हें स्वीकार करें तो ये पारस्परिक पोषक बने रहते हैं।
इस तरह 'स्यात्' शब्द किसी अपेक्षा से (कथंचित्) का वाचक है। प्रमाण की दृष्टि से वस्तु तो अनेकान्त रूप है किन्तु नय की दृष्टि में वस्तु परस्पर विरोधी स्वभाव वाली