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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 प्रतिदिन नियम से खिरती हैं। इसके सिवाय, गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र सदृश विशेष पुण्यशाली व्यक्तियों के आगमन होने पर उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए भी दिव्यध्वनि खिरती है। इसका कारण यह है कि उन विशिष्ट पुण्यात्माओं को सन्देह दूर होने पर धर्म भावना बढ़ेगी और उससे मोक्षमार्ग की देशना का प्रचार होगा जो धर्म तीर्थंकर की तत्त्व प्रतिपादन दी पूर्ति स्वरूप होगी। जयधवला टीका में लिखा है कि यह दिव्यध्वनि प्रातः, मध्याह्न, तथा सांयकाल इन तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी पर्यन्त खिरती हैं- तिसंज्झ विसयछचडियासु णिरंतरं पयट्टमाणिया (भाग 1पृ.126)। तिलोयपण्णत्ती में तीन संध्याओं में नवमुहूर्त पर्यन्त दिव्यध्वनि खिरने का उल्लेख हैपगदीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि।। णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वज्झुणी जाव जोयणय।।62॥ इसी ग्रंथ में यह भी कहा है कि गणधर, इन्द्र तथा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्यध्वनि समयों में भी निकलती है, यह भव्य जीवों को छहद्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। तीर्थंकरों के वचन विषयक गुणों की चर्चा स्तोत्रों में अनेक स्थलों पर की गई है। यथान शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्टयः। यथा मुनेस्तेऽनघवाक्यरश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम्॥ स्वयम्भूस्तोत्र 10/1 अर्थात् भगवान के वचन रूपी किरणों से जो शीतलता प्राप्त होती है, वैसी शीतलता चन्दन से, चन्द्रमा की किरणों से, गंगा के जल से और मोतियों की मालाओं से प्राप्त नहीं हो सकती है। परम आनन्दकारी, सुखकारी अमृतवत् प्रभु की वाणी अजर-अमर पद की दात्री है। यथास्थाने गम्भीरहृदयोदधि सम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति। पीत्वा यतः परमसम्मदसङ्गभाजो, भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्॥ कल्याणमन्दिरस्तोत्र - 21 'विषापहार स्तोत्र' में भगवान् के वागातिशय को प्रगट करते हुए कहा गया है कि उनका वचन नानार्थक भी है एवं एकार्थक भी है, वह नाना लोगों के लिए एक ही अर्थ को सम्प्रेषित करता है। वह हितकारी भी है जिसे सुनकर व्यक्ति निर्दोषता को प्राप्त होता है नानार्थमेकार्थमदस्तदुक्तं, हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः। निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण, मुक्तः, सुगमः स्वरेण॥ विषापहार स्तोत्र-29 तीर्थकरों के वचनों की महिमा अपार है। इन वचनों को श्रवण कर, उनका रहस्य समझकर स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। यही बात व्यक्त करते हुए लिखा है
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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