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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
महान मंदमति प्राणी, सर्प, गाय, व्याघ्र, कपोत, हंसादि पशु-पक्षी भी अपने-अपने योग्य ज्ञान की सामग्री प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि अलौकिक वस्तु है, अनुपम है और आश्चर्यकारक है। उस वाणी के समान विश्व में अन्य कोई वाणी नहीं है। वाणी की लोकोत्तरता में कारण तीर्थकर भगवान का त्रिभुवन वन्दित अनन्त सामर्थ्य समलंकृत व्यक्तित्व है। सामर्थ्यसंपन्न गणधरदेव महान महिमाशाली सुरेन्द्र आदि भी प्रभु की अपूर्व शक्ति से प्रभावित होते हैं। योग के द्वारा जो चमत्कारयुक्त वैभव दिखाई पड़ता है, वह स्थूल दृष्टि वाले को समझ में नहीं आता है, अतएव वे विस्मय के सागर में डूबे ही रहते हैं। दिव्यध्वनि तीर्थकर प्रकृति के विपाक-उदय की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति कर्म का बन्ध करते समय केवली, श्रुतकेवली में पादमूल में इस भावना का बीज बोया गया था कि इस बीज से ऐसा वृक्ष बने, जो समस्त प्राणियों को सच्ची शांति तथा मुक्ति का मंगल संदेश प्रदान कर सके। मनुष्य पर्याय रूपी भूमि में बोया गया यह तीर्थकर प्रकृति रूप बीज अन्य साधन सामग्री पाकर केवली की अवस्था में अपना वैभव तथा परिपूर्ण विकास दिखाता हुआ त्रैलोक्य के समस्त जीवों को विस्मय में डालता है। आज भगवान ने इच्छाओं का अभाव कर दिया है, फिर भी उनके उपदेश आदि कार्य ऐसे लगते हैं मानों वे इच्छाओं के द्वारा प्रेरित हो। इसका यथार्थ में समाधान यह है कि पूर्व की इच्छाओं के प्रयास से भी कार्य होता है। जैसे घड़ी में चाबी भरने के पश्चात् यह घड़ी अपने आप चलती है, उसी प्रकार तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करते समय जिन कल्याणकारी भावों का संग्रह किया गया था वे ही बीज अनन्तगुणित होकर विकास को प्राप्त हुए हैं। अतः केवली की अवस्था पूर्ण सञ्चित पवित्र भावना के अनुसार सब जीवों को कल्याणकारी सामग्री प्राप्त होती है। ___ दिव्यध्वनि के विषय में कुन्दकुन्दाचार्य के सूत्रात्मक ये शब्द महत्त्वपूर्ण है-'तिहुवण हिदमधुरविसदवक्काणं' अर्थात् दिव्यध्वनि के द्वारा त्रिभुवन के समस्त भव्य जीवों को हितकारी, प्रिय तथा स्पष्ट उपदेश प्राप्त होता है। जब छद्मस्थ तथा बाल अवस्था वाले महावीर प्रभु के उपदेश के बिना ही दो चारण ऋद्धिधारी महामुनियों की सूक्ष्म शंका दूर हुई थी तब केवलज्ञान, केवलदर्शनादि सामग्री संयुक्त तीर्थकर प्रकृति के पूर्ण विपाक-उदय होने पर उस दिव्यध्वनि के द्वारा समस्त जीवों को उनकी भाषाओं में तत्त्व बोध हो जाता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
धर्मशर्माभ्युदय में दिव्यध्वनि का वर्णन करते हुए लिखा हैसर्वाद्भुतयमयीसृष्टिः सुधावृष्टिश्च कर्णयोः। प्रावर्तत ततो वाणी सर्वविद्येश्वराद्विभो।।620॥
सर्व विद्याओं के ईश्वर जिनेन्द्र भगवान के सर्व प्रकार के आश्चर्यों की जननी तथा कर्णों के लिए सुधा की वृष्टि के समान दिव्य ध्वनि उत्पन्न हुई। गोम्मटसार जीवकाण्ड की संस्कृत टीका में लिखा है कि तीर्थकर की दिव्यध्वनि प्रभात, मध्याह्न, सायंकाल तथा मध्यरात्रि के समय छह-छह घटिका काल पर्यन्त अर्थात् दो घण्टा चौबीस मिनट तक