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अध्यात्म पद
जीव तैं मेरी सार न जानी
जीव तैं मेरी सार न जानी, हम तुम बहुत बार मिल विछुरे, आदि किन्हीं न पिछानी। जीव रौं....॥ पाप, पुण्य के रथ चढ़ि दौरे, नर, सुर, पशु गति छानी, निज स्वरूप निज पंथ न पायो, भ्रम भूले अज्ञानी। जीव तें...॥ रसि, आँख, मुख, कान, हाथ, पग सब तुझ आज्ञा मानी, तुम अपनों हित क्यों नहिं कीन्हों, कब हमने हठ ठानी। जीव रौं...॥ चाकर राखे, काम करावे, देव अन्न और पानी, सब क्यों मोह नीद में सोये ? अब रोये अज्ञानी। जीव रौं...॥ मोह पाय विषियन में राच्यो, भयो नहीं तप ध्यानी, मोह कृतघ्न बतावे चेतन, अपनी भूल न मानी।। जीव तैं....॥ मानव तन को सुरपति तरसें, पावत दीक्षा ठानी, मो पाये बिन कभी मिलैना शिवपुर की रजधानी।। जीव ते....॥ 'द्यानत' मनुष देह धरि धारें, पंच महाव्रत ज्ञानी, तेही पार होय भव दधिरौं मिले मोक्ष रजधानी। जीव ते...॥
- द्यानतराय