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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
लोक में जो भूतार्थ है वह निश्चय है और जो अभूतार्थ है वह व्यवहार है। प्रायः संसार के सभी प्राणी भूतार्थ के ज्ञान से विमुख हो रहे हैं। समयसार में लिखा है
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो॥ अभूतार्थ का नाम व्यवहार है और भूतार्थ का नाम निश्चय है। जिस जीव ने भूतार्थ का आश्रय कर लिया वह सम्यग्दृष्टि (ज्ञानी) कहलाता है।
इसका स्पष्टीकरण जैनागम में इस प्रकार किया गया है कि एक तो वस्तु की अखण्डरूपता निश्चय है और उसके जितने खण्ड हो सकते हैं वे सब व्यवहार रूप हैं। दूसरे वस्तु की स्वाश्रयता निश्चय है और उसकी जितनी भी पराश्रितता है वह व्यवहार है क्योंकि अखण्डरूपता त्रैकालिक या अनादि निधन होने के भूतार्थ की कोटि में समाविष्ट होती है तथा खण्डरूपता अस्थायी होने से अभूतार्थ की कोटि में समाविष्ट होती है। इसी प्रकार स्वाश्रयता वस्तु का निजरूप होने से भूतार्थ है और पराश्रयता वस्तु का निजरूप न होने व पर के सहयोग से होने से अभूतार्थ हैं। इस तरह आत्मा के स्वरूप के विषय में जो स्वभाव और विभाव के रूप प्रतिभासित होते हैं उनमें से स्वभाव का रूप भूतार्थ है।'
उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने इस गाथा का अर्थ दो प्रकार से किया है एक तो यह है कि व्यवहार तो अभूतार्थ है और निश्चय नय भूतार्थ है जो कि आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी सम्मत है किन्तु इन्ही आचार्य के गाथा के 'दु' शब्द को लेकर दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया है कि व्यवहारनय भूतार्थ व अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है, इसी प्रकार निश्चयनय भी शुद्ध निश्चयनय व अशुद्धनिश्चय के भेद से दो प्रकार का है। उसमें भूतार्थ को करने वाला सम्यग्दृष्टि होता है।
यहां पर भूतार्थ का अर्थ सत्यार्थ व अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा विस्तार नहीं लेना चाहिए किन्तु "अ" का अर्थ ईषत् लेकर व्यवहारनय अभूतार्थ अर्थात् तात्कालिक प्रयोजनवान है ऐसा लेना चाहिए।
किंच भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्व लोचन कोष में जिस प्रकार सत्य बतलाया है, उसी प्रकार उसका अर्थ 'सम' भी बतलाया है। अतः भूतार्थ का अर्थ जबकि सम होता है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करने वाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता को कहने वाला अपने आप हो जाता है। जिससे व्यवहार नय अर्थात् परमार्थिक नय और निश्चय नय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय सत् प्रकार का अर्थ अनायास ही निकल जाता है, जो कि इतर आचार्यो के द्वारा भी सर्वसम्मत है और 'निश्चय नय को स्वीकार कर लेने पर ही सम्यग्दृष्टि' होता है यह बात भी कुन्दकुन्दाचार्य की सर्वथा ठीक बैठती है, क्योंकि जब यह जीव जिस पर्याय में जाता है, उस पर्यायरूप ही अपने आपको (पशु होने पर पशु, मनुष्य होने होने पर मनुष्य इत्यादि) मानता रहता है किन्तु जब अपने आपको पशु या मनुष्य इत्यादि रूप न मानकर सदा शाश्वत रहने वाला ज्ञान का धारक आत्मा मानने लगता है तब ही सम्यग्दृष्टि होता है। समयसार में लिखा है