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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो॥० व्यवहार नय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं और निश्चय नय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते। निश्चय नय तादात्म्य सम्बन्ध को लेकर वर्णन करता है। उसकी दृष्टि में संयोग सम्बन्ध गौण होता है। ज्ञानावरणादि कर्म और आत्मा का यदि कोई सम्बन्ध है तो वह संयोग सम्बन्ध है, इसलिए निश्चय नय की दृष्टि में कर्म नहीं है और उनका कर्ता नहीं है अपितु इस दृष्टि में तो आत्मा का स्वयं का परिणाम ही उनका कर्म है और आत्मा उनका कर्ता है, क्योंकि उसका उसी के साथ तादात्म्य है। निश्चय नय से सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने शुद्ध स्वरूप में सदा रहते हैं। जाना, आना, घटना, बढ़ना, ठहरना, ठहराना, आदि क्रियायें उसमें नहीं होती हैं। व्यवहार नय से ही उन पदार्थों के क्रियासहितपन की प्रसिद्धि हो रही है। निश्चय नय तो वस्तु में शुद्ध निर्विकल्प अंशों को ग्रहण करता है। व्यवहार नय से आधार-आधेय व्यवस्था हो रही है। निश्चय नय के अनुसार कार्य-कारण भाव की घटना नहीं हो सकती है, न कोई किसी को बनाता है और न कोई किसी से बनता है, कोई किसी का बाध्य या बाधक नहीं है। प्रतिपाद्य-प्रतिपादन भाव, गुरु-शिष्य भाव, जन्य-जनक भाव ये सब भाव व्यवहार नय अनुसार है। जब तक साध्य और साधन में भेद दृष्टि है तब तक व्यवहार नय है और जब आत्मा को आत्मा से जानता है, देखता है, आचरता है, तब आत्मा ही सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र होने से अभेद रूप निश्चय नय है। पं० आशाधर जी ने व्यवहार और निश्चय का यही लक्षण दिया है कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसुद्धये। साध्यन्तव्यवहारोऽसौ निश्चयस्तमभेददृक्॥2 जिसके द्वारा निश्चय की सिद्धि के लिए कर्ता-कर्म-करण आदि कारक वस्तु जीवादि से भिन्न जाने जाते हैं वह व्यवहार नय है और कर्ता आदि को जीव से अभिन्न देखने वाला निश्चय नय है। इससे स्पष्ट है कि निश्चय की सिद्धि ही व्यवहार का प्रयोजन है। उसके बिना व्यवहार भी व्यवहार कहे जाने का अपात्र है। ऐसा व्यवहार ही निश्चय का साधक होता है। निश्चय को जाने बिना किया गया व्यवहार निश्चय का साधक न होने से व्यवहार भी नहीं है। पण्डित आशधर जी ने एक दृष्टान्त दिया है जैसे नट रस्सी पर चलने के लिए बांस का सहारा लेता है और जब उसमें अभ्यासरत हो जाता है तो बांस का सहारा छोड़ देता है उसी प्रकार निश्चय की सिद्धि के लिए व्यवहार का अवलम्बन लेना होता है किन्तु उसकी सिद्धि होने पर व्यवहार स्वतः छूट जाता है। व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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