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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई-सितम्बर 2009 संभव नहीं है किन्तु व्यवहार का लक्ष्य निश्चय होना चाहिए और वह सतत दृष्टि में रहना चाहिए। निश्चय रूप धर्म धर्म की आत्मा है और व्यवहार रूप धर्म उसका शरीर है। जैसे आत्मा से रहित शरीर मुर्दा-शवमात्र होता है, वैसे ही निश्चय शून्य व्यवहार भी जीवन हीन होता है, उससे धर्म सेवन का उद्देश्य सफल नहीं होता। धर्म यथार्थ में वही कहलाता है जिसमें संवरपूर्वक निर्जरा होकर अंत में समस्त कर्म-बन्धन से छुटकारा होता है। निश्चय-व्यवहार में मैत्रीभाव निश्चय नय से निरपेक्ष व्यवहार का विषय असत् है अत: निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का उपयोग करने पर स्वार्थ का विनाश ही होता है, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात्।। केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद् भ्रश्यति स्वार्थात्॥ व्यंजन ककार आदि अक्षरों को भी कहते हैं और दाल-शाक वगैरह को भी कहते हैं। जैसे स्वर रहित व्यंजन का उच्चारण करने वाला अपनी बात दूसरे को नहीं समझा सकता, अतः स्वार्थ से भ्रष्ट होता है या जैसे घी, चावल आदि के बिना केवल दाल-शाक खाने वाला स्वस्थ नहीं रह सकता अतः वह स्वार्थ-पुष्टि के भ्रष्ट होता है। वैसे ही निश्चय नय से विमुख बहिर्दृष्टि वाले मनुष्यों के सम्पर्क से होने वाले अज्ञानवश अधिकतर अभूतार्थ व्यवहार को ही भावना करने वाला अपने मोक्ष सुखदायी स्वार्थ से भ्रष्ट होता है। कभी भी मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे निश्चय से शून्य व्यवहार व्यर्थ है, वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय भी सिद्ध नहीं होता, यह व्यतिरेक के द्वारा कहते है व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति, बीजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति॥१४ जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को करना चाहता है, वह मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि के बिना ही वृक्ष आदि फलों को उत्पन्न करना चाहता है। समयसार में लिखा है व्यवहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहि। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥ अर्थात् ये सब रागादि अध्यवसानमयी भाव जीव है, ऐसा जिनवर भगवान् ने जो आदेश दिया है, वह व्यवहार नय का मत है। इस गाथा की टीका में आचार्य जिनसेन ने लिखा है-यह व्यवहार नय का दर्शन है, मत है, स्वरूप है जो कि जिनेन्द्र भगवान ने बतलाया है कि वे सब अध्यवसायादि भाव परिणाम भी जीव है। स्पष्टीकरण यह है कि यद्यपि व्यवहारनय बहिर्द्रव्य का आलम्बन लेने से अभूतार्थ है किन्तु रागादि बहिर्द्रव्य से आलम्बन से रहित विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव के आलम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से इसका भी कथन करना आवश्यक है, क्योंकि यदि व्यवहारनय को सर्वथा भुला दिया जाये तो फिर शुद्ध निश्चय से तो त्रस और स्थावर जीव है ही नहीं,
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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