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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
25 अतः फिर लोग निःशङ्क होकर उनके मर्दन में प्रवृत्ति करने लगेंगे। ऐसी दशा में पुण्य रूप कर्म का अभाव हो जायेगा, एक दूषण तो यह आयेगा तथा शुद्धनिश्चयनय से तो जीव राग, द्वेष, मोह से रहित पहले से ही है अत: मुक्त ही है, ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिए भी अनुष्ठान कोई क्यों करेगा, अत: मोक्ष का अभाव हो जायेगा, यह दूसरा दूषण आयेगा। इसलिए व्यवहारनय का व्याख्यान परम आवश्यक है, निरर्थक नहीं है।
पं. जयचन्द जी का भावार्थ है- परमार्थनय तो जीव को शरीर और राग, द्वेष, मोह से भिन्न कहता है। यदि इसी का एकान्त किया जाये, तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल के घात से हिंसा नहीं हो सकती ओर राग, द्वेष, मोह से बंध नहीं हो सकता। इस प्रकार परमार्थ से संसार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा। ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है। अवस्तु का ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्तु रूप ही है इसलिए व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है। इस प्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध भेदकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है।"
व्यवहार नय पर्यायार्थिक है, अतएव जीव के साथ पुद्गल का संयोग होने से जीव की औपाधिक अवस्था हो रही है उसका वर्णन करता है, इसलिए वर्णादिक से गुणस्थान पर्यन्त भावों को जीव के रहता है किन्तु निश्चयनय तो मूल द्रव्य को लक्ष्य में लेकर स्वभाव का ही कथन करने वाला है इसलिए निश्चयनय की दृष्टि में ये जीव में नहीं है, क्योंकि सिद्ध अवस्था में ये नहीं होते । यह सब विवक्षा भेद से है। स्याद्वाद में इसका कोई विरोध नहीं है।”
निश्चयनय अभिन्न तादात्म्य सम्बन्ध या उपादान-उपेय भाव को ही ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि संयोग-सम्बन्ध पर नहीं जाती जबकि व्यवहार नय संयोग सम्बन्ध और निमित्त-नैमित्तिक भावों को बतलाने वाला है। इसलिए आचार्य महाराज कहते हैं कि आत्मा निश्चयनय से तो अपने भावों का ही कर्ता-भोक्ता है किन्तु व्यवहारनय से वह द्रव्य कर्मों का करने वाला तथा भोगने वाला भी है। यह व्यवहार नय समाधि अवस्था से च्युत अज्ञान दशा में स्वीकार किया जाता है किन्तु समाधि दशा में निश्चय नय का अवलंबन रहता है।
सिद्धान्त में तथा अध्यात्म में प्रवेश के लिए नय ज्ञान बहुत आवश्यक है क्योंकि दोनों नय दो आँखें हैं और दोनों आँखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है। एक आँख से देखने पर केवल एक अंश का ही अवलोकन होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है
दोण्हवि णयाण भणियं जाणदि णवरिं तु समय पडिबद्धो।
___ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो॥18 जो पुरुष सहज परमानंद स्वरूप समयसार का अनुभव करने वाला है वह दोनों नयों के कथन को जानता अवश्य है किन्तु वह किसी भी एक नय के पक्ष को स्वीकार नहीं करता, दोनों नयो के पक्षपात से दूर रहता है।
बद्धादि विकल्परूप व्यवहारनय का पक्ष है और अबद्धादि-विकल्प रूप निश्चय नय का पक्ष है, किन्तु पारिणामिक परमभाव का ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय के द्वारा देखने पर जीव बद्धाबद्धादिरूप विकल्प से सर्वथा दूर है, ऐसा कथन करते हैं