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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एक दु जादा णअपक्खं।
पक्खतिक्कतो पुण भणदि जो सो समयसारो। जीव से कर्म बद्ध हैं, लगे हुए हैं, यह भी और जीव में कर्म चिपके हुए नहीं हैं, ऐसा भी एक नय का पक्ष है किन्तु समयसार रूप जो आत्मा है, वह इन दोनों पक्षों से दूरवर्ती है।
नय जितने भी होते हैं, वे सब श्रुतज्ञान के विकल्परूप होते हैं, यह सिद्धान्त की बात है और श्रुतज्ञान क्षयोपशमिक है, वह क्षयोपशम ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने के कारण यद्यपि व्यवहार नय के द्वारा छद्मस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वरूप होता है तथापि केवल ज्ञान की अपेक्षा से वह शुद्धजीव का स्वरूप नहीं है तब फिर जीवन स्वरूप क्या है? इस प्रश्न के होने पर आचार्य उत्तर देते हुए कहते है-नय ने पक्षपात से रहित- जो स्वसंवेदन-ज्ञानी जीव है उसके विचारानुसार जीव का स्वरूप बद्धाबद्ध या मूढामूढ़ आदि नय के विकल्पों रहित चिदानंद स्वरूप होता है जैसा कि आत्मख्यातिकार ने लिखा है।
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृतं पिबन्ति। एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोाविति पक्षपातो।
यस्तत्त्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव। जो लोग नय के पक्षपात को छोड़कर सदा अपने आपके स्वरूप में तल्लीन रहते हैं एवं सभी प्रकार के विकल्प जाल से रहित शान्त-चित्त वाले होते हैं, वे लोग ही साक्षात् अमृत का, समयसार का पान करते हैं। जीव व्यवहारनय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चयनय की अपेक्षा से वह बद्ध नही होता अतः वह इन दोनों नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपात है। इसलिए पक्षपात से रहित तत्त्वविवेकी पुरुष के ज्ञान में तो चेतन, चेतन ही है। आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बुद्धिनिश्चय और व्यवहार इन दोनों नय को लेकर चलती है, किन्तु तत्त्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जाने पर ऊहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा हेय और उपादेय-तत्त्व का निर्णय कर लेने पर हेय का त्याग करके उपादेय-तत्व में लगे रहना साधु-सन्तों को अभीष्ट है। आचार्य अमृचन्द्र ने लिखा है
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुद्धतत्त्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः॥2 अर्थात् व्यवहार और निश्चय को समझकर जो दोनों में मध्यस्थ हो जाता है अर्थात् किसी एक नय का पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। इस प्रकार हमें आगम और अध्यात्म विषयक यथार्थ दृष्टि से वस्तु स्वरूप को हृदयंगम करना चाहिए।