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________________ 50 अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 इच्छित वस्तु प्राप्त कर प्रसन्नता से झूम उठते हैं, "मोक्षमार्ग प्रकाशक" भी सामान्य मुमुक्षुजनों के लिये उसी औपन्यासिक-शैली में लिखा गया एक अनूठा ग्रंथ है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं किया गया किन्तु संक्षेपीकरण में कोई विषय अस्पष्ट भी नहीं रहा। यद्यपि पं. टोडरमल स्वयं ही ग्रंथ की विषय-गंभीरता एवं लोक-प्रियता से परिचित थे फिर भी, उन्होंने इसका नाम "मोक्षमार्ग-प्रकाश' न रखकर "मोक्षमार्ग प्रकाशक" रखा। व्याकरण के लघ्वर्थे कः के नियमानुसार उन्होंने उसे "प्रकाशक" कहकर सिद्ध किया है कि द्वादशांग-वाणी के सम्मुख मेरी यह रचना नगण्य है। इस कथन से उनकी निरभिमानता सूचित होती है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक के आद्योपान्त अध्ययन करने से निम्नलिखित तथ्य सम्मुख आते हैं - 1. मुद्रणालयों के प्रचलन के अभाव में भी बड़े ही कष्ट पूर्वक प्राचीन हस्तलिखित नागरी एवं कन्नड़ लिपियों की पाण्डुलिपियों को उपलब्ध कर उनका गहन अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करना सामान्य प्रतिभा वाले व्यक्ति के लिए संभव न था। असामान्य प्रतिभावाले पं. टोडरमलजी के लिये ही वह संभव था, जो अल्पायुष्य में भी ऐसा महान् कार्य कर सके। 2. मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उपलब्ध मूल उद्धरणों का मिलान आधुनिक मुद्रित ग्रंथों के साथ पाठालोचन की दृष्टि से करने से उपयोगी सिद्ध होगा। अतः मुद्रित एवं अमुद्रित दोनों के तुलनात्मक अध्ययन करने से उन ग्रंथों के पुनः नवीन प्रामाणिक संस्करण तैयार किए जा सकते है। 3. जैन-धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने हेतु पण्डितजी ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक में वैदिक-शास्त्रों से जो उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, नवीन मुद्रित ग्रंथों में उनका प्रायः अभाव या वे कुछ परिवर्तित रूप में मिलते हैं। टोडरमलजी द्वारा प्रस्तुत सभी ग्रंथ जयपुर के शास्त्र-भण्डारों में अवश्य होंगे। हस्त-लिखित प्राचीन ग्रंथ होने के कारण उनकी प्रामाणिकता में संदेह भी नहीं है। अतः उनका पुनः तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिये तथा प्राप्त तथ्यों का प्रकाशन होना चाहिये। 4. पण्डितजी द्वारा प्रयुक्त जैन ग्रंथों में से जिनका प्रकाशन अभी तक न हुआ हो, उन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझकर उनका सानुवाद, सभाष्य प्रकाशन तत्काल होना चाहिये। दार्शनिक चिन्तन-निश्चय एवं व्यवहार शौरसेनी-जैनागमों मे निश्चय-नय एवं व्यवहार-नय की चर्चाएं प्रमुख रूप से मिलती हैं। इन विषयों को लेकर विद्वानों में आजकल बड़ा शास्त्रार्थ चल रहा है। कोई निश्चय-नय को ही यथार्थ मानता है और कोई निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयों को ही उपादेय मानता है किन्तु पं. टोडरमल के अनुसार निश्चय एवं व्यवहार दोनों ही नयों को उपादेय मानना भ्रम है, क्योंकि दोनों नयों का स्वरूप परस्पर विरुद्ध है। व्यवहार-नय- सत्य-स्वरूप का निरूपण नहीं करता किन्तु किसी अपेक्षा से उसे उपचार से वह अन्यथा ही निरूपण करता है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उन्होंने लिखा है- “निश्चय नय करि जो निरूपण किया
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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