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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 51 होय ताकौ तों, सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अंगीकार करना, अर व्यवहार नय कर जो निरूपण किया होय ताकौ असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना"। आगे उन्होंने समयसार-कलश एवं षट्पाहुड के उद्धरणों से अपने पक्ष का समर्थन भी किया है और उपसंहार वचनों में पुनः लिखा है - तातै व्यवहार नय का श्रद्धान छोड़ि निश्चय नय का श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहार नय स्व द्रव्य और पर द्रव्य कौं वा तिनके भावनिकौं वा कारण-कार्यदिक कौं काहू कौं काहू विर्षे मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे ही श्रद्धान” मिथ्यात्व है। तातैं याका त्याग करना। बहुरि निश्चय नय तिनही को यथावत् निरूपै है, काहू विषै न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धान तें सम्यक्त्व हो है। तातैं याका श्रद्धान करना। रत्नत्रय रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र की व्याख्या कितने सरस, सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत की गई है- "तातै बहुत कहा कहिए जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटावने का ज्ञान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटै सो ही आचरण सम्यग्चारित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है। मूर्तिपूजा पण्डितजी मूर्तिपूजा को जैनाचार का एक आवश्यक अंग मानते थे। उनके अनुसार जिनमूर्ति सजीव अथवा शुद्धात्मा की प्रतिच्छाया है। अतः उन्होंने इसका समर्थन किया तथा "भगवती-सूत्र का अध्ययन कर उसमें प्राप्त “चैत्य" शब्द के अर्थो में असंगति देखकर लिखा है' - "भगवती-सूत्र विषै........"जाय तत्थ चैत्यनिकौं वंदइ" ऐसा पाठ है। याका अर्थ यहु-तहाँ चैत्यनिकौं बंद है। सो चैत्य नाम प्रतिमा का प्रसिद्ध है। बहुरि वै हठकरि कहै है-चैत्य शब्द के ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजैं, सो अन्य अर्थ है। प्रतिमा का अर्थ नाहीं। याकौ पूछिये है- मेरूगिरि नन्दीश्वर द्वीप विषै जाय तहा चैत्यबंदना करी, सो उहां ज्ञानादिक की वंदना तो सर्वत्र संभवै। जो वंदने योग्य चैत्य उहीं ही संभवै, अर सर्वत्र न संभवै, ताकौ तहां वंदना, करने का विशेष संभव, सो ऐसा सम्भवता अर्थ प्रतिमा ही है। अर चैत्य शब्द का मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकरि चैत्यालय नाम संभव है। याकौं हठ करि काहे कों लोपिए"। शिथिलाचार एवं गुरूडम का विरोध पण्डित टोडरमलजी पाखण्ड, ढोंग, आडम्बर एवं गुरूडम के घोर विरोधी थे। शिथिलाचारी भट्टारकों ने अपने गुरूपद को सुरक्षित रखने के लिये मनमानी करना प्रारंभ कर दिया था और सिद्धांतागम ग्रंथों को पढ़ना बन्द कर दिया था। जैन मंदिरों में स्वाध्याय कराने हेतु पेशेवर पण्डितों की नियुक्तियाँ करा दी तथा मंदिरों में सिंहासन पर आसीन होने लगे। तात्पर्य यह कि जब भट्टारक स्वं मठाधीश बन गये तथा पण्डितजी यह देख ना सके
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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