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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
तो इनका विरोध करने के लिये उन्होंने कमर कस ली। यद्यपि उनके पूर्व महाकवि बनारसीदास, सन्त कबीर की तरह ही शिथिलाचारियों को डॉट-फटकार लगाकर उन्हें झाड़ चुके थे। किन्तु उसका असर कम होने लगा था। अत: पं. टोडरमलजी ने दुगुनी शक्ति से उनका विरोध किया। उनका यह विरोध जैनाचार के क्षेत्र में जबर्दस्त क्रान्ति थी। यदि उस समय पण्डितजी क्रान्ति का स्वर न फूंकते, तो आज सच्चे साधुओं के स्थान पर शिथिलाचारी एवं सरागी तथाकथित साधुओं की ही पूजा होती। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उन्होंने स्वयं लिखा है -जहाँ मुनि कै धात्रीदूत छयालीस दोष आहारादि विषै कहे हैं, तहां गृहस्थिनि के बालकनिकौं प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र, औषधि, ज्योतिषादि कार्य बतावना इत्यादि। बहुरि किया कराया अनुमोधा भोजन लैंणा इत्यादि किरिया का निषेध किया है। सो अब कालदोषइनहीं दोषनिकौं लगाय आहारादि ग्रहैं हैं........नाना परिग्रह राखै हैं। बहुरि गृहस्थ धर्मवि भी उचित नाहीं वा अन्याय लोकनिध पापरूप कार्य तिनिकौं करते प्रत्यक्ष देखिये है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका सौं अविनय करैं हैं। बहुरि आप जिनौं भी महंतता राखि ऊँचा बैठना आदि प्रवृत्ति कौं धारें है। इत्यादि अनेक विपरीतिता प्रत्यक्ष भासै अर आपकौं मुनि मानें, मूलगुणादिक के धारक कहावै। ऐसे ही अपनी महिमा करावै। बहुरि गृहस्थ भोले, उनकरि प्रशंसादिक् करि ठिगे हुये ध म का विचार करै नाहीं। उनकी भक्ति विर्षे तत्पर हो हैं। सो बड़े पापकौं बड़ा ध र्म मानना, इस मिथ्यात्व का फल कैंसू अनन्त संसार न होय। एक जिनवचनकौं अन्यथा माने महापापी होना शास्त्रविर्षे कहा है। यहां तो जिनवचन की किछू बात राखी ही नाहीं। इस समान और पाप कौन है? आदि आदि ।" जैन-गणित के व्याख्याता
प्राच्यकालीन गणितज्ञों के अनुसार जैन-गणित स्वयं में परिपूर्ण एक वैज्ञानिक अंकविद्या है। करणानुयोग में भूगोल-खगोल के साथ-साथ अंकविद्या भी प्रमुख रूप से वर्णित है। जैनाचार्यों ने इस क्षेत्र में अद्भुत कार्य किये हैं। उनका अन्तः परीक्षण कर देश-विदेश के कई विद्वानों ने इसे ग्रीक-पूर्व-प्राचीन गणित सिद्ध किया है। पं. टोडरमलजी उस अलौकिक जैन एवं लौकिक गणित के धुरन्धर विद्वान् थे। उन्होंने जन-सामान्य के हितार्थ कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं पर गुर Formulae लिखे थे। उन्हें देखकर स्पष्ट हो जाता है कि हर विषय में उनकी कितनी गहरी पैठ थी तथा दूसरों को समझाने की कैसी अद्भुत क्षमता थी। त्रिलोकसार' की भूमिका में उन्होंने लिखा है- सर्व शास्त्रनिका ज्ञान होने को कारणभूत दो विद्या है। एक अच्छरविद्या एक अंकविद्या। सो व्याकरणादि करि अच्छर ज्ञान भए अर गणित-शास्त्रनि करि अंकज्ञान भऐ शास्त्रनि का अभ्यास सुगम होहै।" जैन-गणित का वर्गीकरण
जैन-गणित का वर्गीकरण करते हुये पण्डितजी ने लिखा है- "बहुरि परिकर्माष्टक को