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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009
आचार्यश्री का मत
इस विषय पर 'पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय' के छन्द क्र. 211 से 223 तक पर प्रवचन करते हुए आचार्यश्री ने 13 बार स्पष्ट रूप से रत्नत्रय को अबंधक घोषित किया है।
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रत्नत्रय से बंध नहीं होता है, रत्नत्रय अबंधक है। आचार्यश्री ने पृ.475 में मधुर स्वर में कठोर ताडना देते हुए कहा है- "अहो मुमुक्षु तुम इसे कैसे बंध मानते हो ? जो दर्शन - ज्ञान - चारित्र से बंध मानता है, उससे अभागा इस विश्व में दूसरा कोई नहीं है। जिन मुद्रा को जो बंध का हेतु कहें, उसे नियम से नरक का बंध हो चुका है। "
आचार्यश्री मानते हैं कि बंध रत्नत्रय से नहीं होता है। बंध राग से होता है। जितने अंश में राग है, उतने अंश में बंध होता है। जितने अंश में वीतरागता रूप रत्नत्रय है, उतने अंश में संवर और निर्जरा है। बंध चार प्रकार का है, इनमें स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से होता है, प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होता है। रत्नत्रय न तो कषाय है और न हि योग है, अतः रत्नत्रय से बंध संभव नहीं है। रत्नत्रय के सद्भाव में प्रशस्त राग के कारण बंध होता है। रत्नत्रयधारी के बंध संभव है, परन्तु वह बंध रत्नत्रय की अपूर्णता का द्योतक है।
तात्त्विक विमर्श
यहाॅ भिन्न-भिन्न दृष्टियों से आगम प्रमाण को दृष्टिपथ पर रखते हुए विमर्श किया जाता है।
प्रथम दृष्टि
आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी राग को बंध का कारण और विराग से संपन्न मुनि को कर्मों का मोचन करने वाला कहते हैं।
1. रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विराग संपण्णो ।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज || 157 ॥ समयसार
अर्थ- रागी जीव कर्मों का बंध करता है, विराग से संपन्न जीव कर्मों से
है। यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है। इसलिए कर्मों में राग मत करो।
2. भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो होदि ।
रागादिविप्पक्को अबंधगो जागो णवरि ॥174। समयसार
मुक्त होता
अर्थ- जीव के द्वारा किया हुआ राग आदि से युक्त भाव बंधक होता है। राग आदि से मुक्त ज्ञायक जीव अबंधक है।
3. उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया ।
तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ॥43॥ प्रवचनसार
अर्थ- जिनवरों में श्रेष्ठ वीतराग भगवान् ने उदय अवस्था को प्राप्त हुए कर्मों के अंश निश्चय से कहे हैं। उन उदयागत कर्मों में मोही, रागी अथवा द्वेषी बंध का अनुभव करता है।