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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
“अहिंसा के सिद्धांतों द्वारा सामाजिक एवं अन्य समस्याओं का निदान"
-डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। इसीलिए अहिंसा को “परम-धर्म" कहा गया है। संसार में जल-थल और आकाश सर्वत्र सूक्ष्म-जीव भरे हुए हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होकर संभव नहीं है। परन्तु यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियाँ प्रमाद-रहित, यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का घात होते हुए भी साधक अपनी आन्तरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है।
संकल्पात कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणः॥
अर्थात् मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस जीवों की जो नहीं हनता, उस क्रिया को गणधरादिक निपुण पुरुष स्थूल हिंसा से विरक्त होना अर्थात् अहिंसाणुव्रत कहते हैं।
अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना लोक में समझा जाता है। अहिंसा का आचरण भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। अन्तरंग में चित्त का स्थित रहना अहिंसा है। जीव का अपने साम्य भाव में संलग्न रहना अहिंसा है। क्रोध-मान-माया-लोभ से रहित पवित्र विचार और संकल्प ही अहिंसा है। अंतरंग में ऐसी आंशिक साम्यता लाये बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती है। । अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है। अहिंसा एक विचार, एक समग्र-चिंतन है। अहिंसा किसी मंदिर में, या किसी तीर्थ पर जाकर सुबह-शाम संपन्न किया जाने वाला कोई अनुष्ठान नहीं है। वह आठों-याम चरितार्थ किया जाने वाला एक संपूर्ण जीवन-दर्शन है। वह संसार के सभी धर्मों का मूल है।
जैनाचार्यों ने अहिंसा को परम-धर्म और हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना है। उन्होंने स्थापित किया है कि झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह आदि बड़े पाप हिंसा रूप हैं। इसीलिए उन्होंने अहिंसा को साध्य तथा सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शेष व्रतों को उसका साधक माना है। उन्होंने आन्तरिक अहिंसा को “निश्चय-अहिंसा" और बाह्य आचरण में पलने वाली अहिंसा को "व्यवहार-अहिंसा" कहा है।
तत्र अहिंसा व्रतमादौ क्रियतेप्रधानत्वात्। सत्यादीनि हि तत्पारिपालनार्थदीनि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्।