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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अर्थात् इन पाँच व्रतों में अहिंसा व्रत को (सूत्रकार ने) प्रारंभ में रखा है, क्योंकि वह सब में मुख्य है। धान्य के खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर काँटों का घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं। अहिंसा अनन्त काल तक मानव मन को प्रकाशित करती रहेगी। वह उधार के तल से जलाया गया दीपक नहीं है, जो घड़ी भर में बुझ जाये। अहिंसा तो एक आंतरिक प्रकाश है। उसे कभी बुझाया नहीं जा सकेगा। भावनाओं को भड़का कर इन्सान को कुछ समय के लिए शैतान बनाया जा सकता है, पर उसे हमेशा शैतान रखा नहीं जा सकता। हिंसा पर अहिंसा की विजय का यही सबसे बड़ा प्रमाण है। अहिसां जैन धर्म का प्राण है इसलिये जैन आगम में अहिंसा की प्रेरणा के लिये और हिंसा के निषेध के लिए, बहुत लिखा गया है। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व अमृतचन्द्र स्वामी प्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य हुए हैं। उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की। हिंसा और अहिंसा की परिभाषा केलिए उन्होंने एक स्वतंत्र-ग्रंथ का नाम रखा "पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय"। अमृतचन्द्र स्वामी ने इस ग्रंथ में हिंसा और अहिंसा का इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि बाद के आचार्यों ने उनके विषय में यह स्वीकार किया कि- "हिंसा-अहिंसा के विषय में आगम में जहाँ भी, जो कुछ भी उपलब्ध है, वह बीज रूप से "पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय" में अवश्य है। जो इस ग्रंथ में नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। आत्मपरिणामहिंसनं हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय।।' अर्थात् आत्म परिणामों का हनन करने से असत्यादि सब हिंसा ही हैं। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनों को उस हिंसा का बोध कराने मात्र के लिए है। जैन मत में हिंसा पर दो पक्षों से विचार किया गया है। एक बाह्य पक्ष है। जैन दर्शन की दार्शनिक शब्दावली में इसे द्रव्य हिंसा कहा गया है। यह पूर्ण रूप में बाह्य घटना है, जिसको प्राणि-पात, प्राणि वध, प्राण हनन आदि नाम से भी जाना जाता है। जैन मत में आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य माना है। अत: उनके अनुसार हिंसा से प्राणों का हनन होता है, आत्मा का नहीं। जैन मत के अनुसार प्राण दस माने गए हैं- पांच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी व शरीर का त्रिविध बल, श्वसनक्रिया एवं आयुष्य। इन प्राण शक्तियों का वियोजन ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है। इस प्रकार प्राण-शक्तियों का हनन करना या उनमें अलगाव उत्पन्न करना ही द्रव्य हिंसा है। दूसरी आन्तरिक हिंसा है, जिसे जैन शब्दावली में भाव-हिंसा कहा गया है। यह मनुष्य की मानसिक स्थिति से उत्पन्न हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा या अहिंसा की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन आगमों का सार है, हिंसा की पूर्ण परिभाषा सूत्र में मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण वध हिंसा है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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