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________________ अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 अन्ततः निष्कर्ष स्वरूप श्रमणी मंगलप्रज्ञा के शब्दों में कह सकते हैं कि काल के स्वरूप के संबन्ध में विभिन्न मतभेद हो सकते हैं किंतु व्यावहारिक जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम्' जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः काल की स्वीकृति आवश्यक है। कालवादी दार्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्त्व स्वीकार करते हैं। 25 इतना न भी माने तो भी विश्व - व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्त्व तो काल को मानना ही होगा। संदर्भ: 82 ऋग्वेद- 10.190. वृहदारण्यक 4.4.16, मैत्रायण 6.15 जैन दर्शन के नव तत्व 5. पातंजलयोगदर्शनम् 3/52 6. जैन दर्शन के नव तत्व, पृ. 81 1. 3. 4. 2. अथर्ववेद 18 /53,54 डॉ. धर्मशीला, पृ. 81 जैन आगम में दर्शन समणी मंगलप्रज्ञा, पृ. 135 पर उद्धृत 7. Howking, stephen- A Brief History of Time p.14 8. जैन दर्शन के नव तत्व- डॉ. धर्मशीला, पृ. 81-82 9. समयाति वा, अवलियाति वा, जीवाति वा, अ जीवाति वा 2 - 10. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 13/61-71 12. 11. वही, 2/124 वही, 5/248 13. लोगागासपदे से एक्केक्क जेठिया हु ऐक्केक्का । रयणाणं इव, ते कालाणु असंखदव्वाणि ।। द्रव्य संग्रह 22 14. उत्तरज्झयणाणि- 28/10 का टिप्पण, पृ. 148 15. तत्त्वार्थसूत्र 5/22 16. जैन दर्शन में द्रव्य- डॉ. कपूर चन्द जैन, पृ. 30-31 17. तत्त्वार्थराजवार्तिक 5.22.10 18. तत्त्वार्थराजवार्तिक- 5.22.4 19. जैन धर्म दर्शन डॉ. मोहन लाल मेहता, पृ. 219-20 20. कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गाथा, 23, पृ. 48 21. कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गाथा 24 पृ. 50 22. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 196 कालः पचति भूतानि कालः संरहति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति काल हिमा ठाणं 2/387 23. द्रष्टव्य, नवनीत, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, जून 1980 पृ.106 24. जैन आगम में दर्शन, पृ. 140 25. षड्दर्शनसमुच्चय पृ.16 -प्रधानाचार्य बी.एस.एस. कॉलेज, बचरी पीरो भोजपुर (बिहार)
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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