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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
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द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्तिवाला है। यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है। कोई भी क्षण इस वृत्ति के बिना नहीं रह सकता। यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन। परिवर्तन को समझने के लिए अन्वय का ज्ञाना होना आवश्यक है। अनेक परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है। इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि उस वस्तु में परिवर्तन हुआ। यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुआ- इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता। स्वजाति का त्याग किये बिना विविध प्रकार के परिवर्तन होना काल का कार्य है। इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकेण्ड आदि विभाग करते हैं। यह व्यवहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्यक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक हैं। यह व्यवहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है। क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन बौद्ध परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त
काल अरूपी और अजीव द्रव्य है। काल अनन्त है। दिन, रात, मास, ऋतु, वर्ष आदि उसके भेद हैं। ये समस्त भेद काल के कारण ही होते हैं। काल न होता तो ये भेद भी नहीं होते। जीव और पुद्गल में समय-समय पर जीर्णता उत्पन्न होती है, वह काल द्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकती। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप स्वभाव से युक्त जीव और 'पुद्गल का जो परिणमन दिखाई देता है, उससे काल द्रव्य सिद्ध होता है।
काल द्रव्य पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शों से रहित है। हानि- वृद्धिरूप है, अगुरुलघु गुणों से युक्त है, अमूर्त है, और वर्तना लक्षण सहित है।
दिगम्बर परम्परानुसार काल निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। श्वेताम्बर परंपरानुसार काल चार प्रकार है- प्रमाणकाल, यथायुर्निवृत्ति काल, मरणकाल और अद्धाकाल। काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं इसलिए उसे प्रमाणकाल कहा जाता है। जीवन और मृत्यु भी काल सापेक्ष है इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुर्निवृत्तिकाल और उसके अन्त को मरणकाल कहा जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति से संबन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। वह मनुष्य लोक में ही होता है। इसीलिए मनुष्य लोक को समय क्षेत्र कहा जाता है। निश्चय काल जीव-अजीव का पर्याय है। वह लोक-अलोक व्यापी है उसके विभाग नहीं होतो। समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के जितने विभाग हैं वे सब अद्धाकाल के हैं। इसका सर्वसूक्ष्म भाग समय कहलाता है। जो अविभाज्य होता है। इसकी प्ररुपणा कमलपत्र- भेद और वस्त्र विदारण के द्वारा की जाती है। मन्दगति से एक पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना समय लगता है उसे एक 'समय' कहते हैं। इस दृष्टि से जैनधर्म की समय की अवधारणा आधुनिक विज्ञान के बहुत समीप है। 1968 की परिभाषा के अनुसार सीजियम धातु नं. 133 के परमाणुओं के 9192631776 कम्पन की निश्चित अवधि कुछ विशेष परिस्थितियों में एक सेकण्ड के बराबर होती है।