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अनेकान्त 62/3, जुलाई-सितम्बर 2009
त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व। मयि किंकरेऽत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ॥ अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये।
तेनाति दग्ध इति मे देव बभूव प्रालपित्वम्॥6॥ जिसका भावार्थ है कि तीनों लोकों के गुरुऔर उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे है जिनेश्वर! इस मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये। हे देव! कृपा करके आप मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए यही एक बात मुझे आप से कहनी है। परन्तु चूँकि मैं संसार से अति पीड़ित हूँ इसलिए मैं बहुत बकवादी हूँ। हमारी नित्य-नैमित्ति पूजा - अर्चनाओं में भी परमार्थिक कामनाओं के उदाहरण मिलते है। कवि वृंदावन जी ने "दु:खहरण विनती' में लिखा है कि
“यद्यपि तुम में रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनंत गुणी, नित शुद्ध दशा शिवथाना है। तद्यापि भक्तन की भीरि हरो सुखदेव तिन्हें जु सुहाना है।
यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, क्या पावे पार सयाना है।" हिन्दी भाषा में लिखे गये जलाभिषेक पाठ में कवि हरजसराय जी ने लिखा है कि
"मैं जानत तुम अष्ट कर्म हरि शिव गये। आवागमन विमुक्त राग-वर्जित भये। पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही।
नय प्रमानतें जानि महा साता लही। उक्त अनेक शास्त्र प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि हमारे पूर्वाचार्यों, विद्वानों एवं कवियों ने भगवन् जिनेन्द्र के वीतराग भाव से भली भाँति परिचित होते हुए भी एक भक्त के रूप में प्रशस्त राग के वशीभूत सभी प्रकार के सुखों की कामना जिनेन्द्र प्रभु से अनेक स्थानों पर व्यक्त की है। महाकवि धनंजय ने विषापहार स्तोत्र में लिखा है कि
"तुंगात्फलं यत्तदकिंचनाच्च। प्राप्य समृद्धान्न धनेश्वरादेः। निरम्भसोऽटयुच्चतमादिवादे
नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः॥17॥ हे भगवन् ! यद्यपि आप अशेष अपरिग्रही है, आपके पास से फिर भी बहुतों के मनोरथो की संपूर्ति ऐसी सरलता से होती है। जो बड़े-बड़े धनेश्वरों से भी नहीं हो पाती। जैसे पर्वत पर तो जलाभाव है फिर भी नदियाँ वहीं से निकलती हैं, जल संग्रह करने वाले समुद्रों से नहीं।
स्तुति करता हुआ भक्त भक्ति के आवेग से भरकर समर्पित भाव से भगवन् को उपालंभ देता है सुख का कर्ता या दु:ख का हर्ता बतला देता है, अपनी दीनता-हीनता प्रकट