________________
अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 भोजन का त्याग करने वाला, निद्रा को जीतने वाला और पुरुषार्थ में कुशल होना चाहिए। इच्छा से रहित, भक्ति परायण, दु:खों को दूर करने में सिद्धि प्राप्त, मनुष्यों के विधान को जानने वाला, कुलक्रमागत सुविद्या से युक्त, जो प्राप्त हुए दैवीय उपसर्गों का दूर करने में कुशल हैं। ऐसा व्यक्ति प्रतिष्ठा विधि को प्रयोग में लाने में कुशल एवं प्रशंसनीय कहा गया है। इससे विपरीत होने पर प्रतिष्ठा दोष से युक्त होगी।
उक्त कसौटी पर हमें वर्तमान प्रतिष्ठाचार्यों को कसना होगा और जो बिना योग्यता लिए इस क्षेत्र में प्रवेश कर गये हैं उन्हें मण्डल विधान, प्रतिष्ठादि कार्यों से दूर करना होगा।
जैन परंपरा में जिन स्थानों पर हम दर्शन, वंदन, पूजन हेतु नहीं जा पाते हैं या जिन आत्मिक गुणों को हम प्रत्यक्ष नहीं देख पाते हैं उन स्थानों और भावों अथवा गुणों की पूजा अपने ही निकटवर्ती स्थान पर तदनुरूप मण्डल की रचना करके योग्य प्रतिष्ठाचार्य/ गृहस्थाचार्य के निर्देशन में करते हैं। अष्टाह्रिका, सोलह कारण, दस लक्षण आदि के अवसरों पर ऐसे मण्डल विधानों की विशेष आयोजना की जाती है तथा इनसे अपेक्षित फल की प्राप्ति भी होते हुए देखी जाती है। कल्पद्रुम विधान, सिद्धचक्र विधान, तीन लोक मण्डल विधान, चतुर्विशति तीर्थकर विधान, सम्मेदशिखर विधान, शान्ति विधान, कर्मदहन विधान, नवदेवता विधान, पंचपरमेष्ठी विधान, रत्नत्रय विधान, सोलह कारण विधान, दस लक्षण विधान आदि विधानों की लम्बी परंपरा है। अतः मण्डल-विधान आदि को करने से पहले हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका लक्ष्य क्या है क्योंकि बिना प्रयोजन कार्य की सिद्धि नहीं होती और कार्य की सिद्धि के लिए पंचपरमेष्ठियों के प्रति भक्ति और उस भक्ति का फल अपेक्षित होता है। आप्त परीक्षा में आया है कि श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु, ये पंच परमेष्ठी कहे गये हैं, इनकी भक्ति करना चाहिए। इनकी भक्ति करने से असाता कर्मो का नाश होता है। कहा भी है
मंगलमूरति परमपद-पंच धरो नित ध्यान। हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान्। मंगल जिनवर पद नमो, मंगल अर्हत देव। मंगलकारी सिद्धपद, सो बन्दौं स्वयमेव।। मंगल आचारज-मुनि, मंगल गुरु उवझाय। सर्वसाधु मंगल करो, वन्दों मनवचकाय।। मंगलसरस्वतिमात का, मंगल जिनवर धर्म। मंगलमय मंगल करो, हरो असाता कर्म।
जैन परंपरा में रत्नत्रय देव, शास्त्र, गुरु के भक्ति के लिए कहा जाता है। यह भक्ति नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचार के पालन और निर्विघ्न पुण्य प्राप्ति; इन तीन बातों के लिए होना चाहिए