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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 मरता है और अकेला जन्म लेता है। किन्तु प्रत्येक आत्मा इतना शक्तिशाली है कि वह अपने गुणों का विकास करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। भगवान् महावीर ने यह भी कहा है कि यदि आत्म कल्याण चाहते हो तो आत्मा के साथ युद्ध करो, बाहरी युद्ध करने से क्या लाभ ??7 महावीर के इन उपदेशों से मनुष्य में जहां एक ओर आत्म विश्वास और आत्म स्वाभिमान की भावना प्रोत्साहित होती है वहां दूसरी ओर उसे ईश्वर जैसी किसी बाहरी सत्ता की पराधीनता से भी मुक्ति मिलती है।
जैन धर्म में पञ्च परमेष्ठी की अवधारणा ईश्वर निष्ठा की अवधारणा नहीं बल्कि आत्मनिष्ठा की अवधारणा है। वैदिक परम्परा में भी परमेष्ठी की अवधारणा इसी रूप में जानी जाती है। 'अथर्ववेद' के अनुसार जो व्यक्ति पुरुष में ब्रह्म को जानता है वही परमेष्ठी को जानता है - 'ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्। 29 'पञ्चास्तिकाय' में भी कहा गया है कि जिसने आत्म साक्षात्कार नहीं किया चाहे वह पदार्थों का तत्त्वज्ञ भी हो, तीर्थंकरों का भक्त भी हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो और संयम तथा तप का पालन भी करने वाला क्यों न हो किन्तु निर्वाण अभी उससे बहुत दूर है। जैन धर्म में व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास के आलोक स्तम्भ के रूप में पञ्च परमेष्ठी को उपास्य माना गया है। ये पञ्च परमेष्ठी हैं - 1. अर्हन्त, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय और 5. साधु। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये पाचों पद व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। इन पञ्च परमेष्ठियों की वन्दना करने वाला जैन धर्म का यह णमोकार मन्त्र भी इसीलिए परम कल्याणकारी मन्त्र माना जाता है -
णमो अरहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्व साहूणं।
इन पांच परमेष्ठियों में अर्हन्त भगवान् जीवन मुक्त परमात्मा हैं, सिद्ध भगवान् पूर्णयुक्त परमात्मा हैं। अर्हन्त तथा सिद्ध भगवान् के पदचिन्हों पर चलने वाले संसार से विरक्त, महाव्रतधारी आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी भी गुरु तुल्य पूज्य माने जाते हैं। इस संसार में आध्यात्मिक गुणों के विकास के कारण ये पांच परमेष्ठी समस्त संसारी जीवों में श्रेष्ठ होते हैं। आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज के अनुसार आत्मशुद्धि अथवा व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति इन्हीं पञ्च परमेष्ठियों का आदर्श रखकर आध्यात्मिक विकास की साधना कर सकता है। । सन्दर्भः 1. आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज, 'उपदेश सार संग्रह', भाग-1, जयपुर, वि०सं 2039, पृ० 61 2. वही, पृ० 61 3. वही, पृ० 62 4. डॉ० मोहन चन्द, 'जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज,' दिल्ली, 1989, पृ० 320 5. आदिपुराण, 38.45-46 6. डॉ० गोकुल चन्द जैन, 'यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन,' अमृतसर, 1967, पृ० 59