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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 ऋजुसूत्रनय और बौद्ध दर्शन : जैन दृष्टि से समीक्षा -डॉ. अनेकान्त कुमार जैन वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता को सापेक्ष दृष्टि से अभिव्यक्त करने के अभिप्राय से जैनदर्शन में 'नयवाद' का जन्म हुआ। नयवाद वह अवधारणा है जो वस्तु की परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों को उनकी अपेक्षानुसार उन्हें एक नाम तथा स्थान देता है। जैनदर्शन में इसीलिए प्रमाण के साथ साथ नय को भी पूरा महत्त्व दिया गया है तथा उसकी स्वीकृति प्रमाणांश के रूप में है। अधिगम के भी दो ही उपाय माने गये हैं- प्रमाण और नय। वक्ता तथा ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय की संज्ञा दी गयी है। इसी आधार पर यह भी कहा गया है कि वचन के जितने भी प्रकार हो सकते हैं उतने ही नय भी हो सकते हैं। इसके बाद भी उन सभी नयों को मुख्य रूप से दो रूपों में तो देखा ही जा सकता है- (1) द्रव्यार्थिक नय (2) पर्यायार्थिक नय। द्रव्यार्थिक नय द्रव्य को लक्ष्य करके चर्चा करता है तथा पर्याय को गौण रखता है। पर्यायार्थिक नय द्रव्य की पर्याय को ही लक्ष्य करता है तथा द्रव्य दृष्टि को गौण रखता है। इसी आधार पर आध्यात्मिक दृष्टि से आत्माश्रित कथन को निश्चय नय तथा आत्मा से पृथक् पराश्रित कथन को व्यवहार नय कहते हैं।' जैनदर्शन में सात प्रकार की दृष्टि को लेकर प्रमुखता के कारण सात प्रकार के नयों का विशेष रूप से विवेचन है। ये सात नय हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ तथा एवंभूत' । यहाँ नैगमनय सामान्य तथा विशेष दोनों को ग्रहण करता है तथा संकल्पपूर्वक अपना कथन करता है। संग्रहनय सामान्य को अपना विषय बनाता है तथा भेद-प्रभेद को गौण रखता है। व्यवहार की दृष्टि भेद-प्रभेद करके देखने की है, उस समय वह सत्ता सामान्य की चर्चा भी नहीं करता, उसे गौण रखता है। इन तीनों से भी ज्यादा सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है जो क्षणमात्र की पर्याय को ही अपना विषय बनाता है। शेष तीनों नयों का संबन्ध शब्दों के प्रयोग, अर्थ तथा व्यापार से है अत: वे भी अपना निर्धारित विषय ही व्यक्त करते हैं तथा अन्य दृष्टियों को गौण रूप से स्वीकारते हैं। इन सातों नयों में सम्यक् और मिथ्यापना भी है। प्रत्येक नय जब तक अपनी दृष्टि को मुख्य रखकर, अन्य दृष्टियों या धर्मों के प्रति गौणता की दृष्टि रखता है तब तक वह 'सम्यक् नय' कहलाता है। अन्य दृष्टियों को गौण न करके यदि वह उनका निषेध करने लगता है तब वह 'मिथ्यानय' कहलाता है इसे दुर्नय अथवा नयाभास भी कहा गया है। सात प्रकार के नयों में चतुर्थ नय 'ऋजुसूत्रनय' है। ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से यह आत्मा अनित्य है तथा सब-कुछ क्षणिक है। जैनदर्शन में पर्यायदृष्टि का सिद्धांत ऋजुसूत्र नय के रूप में एक ऐसा सिद्धांत है जिसकी तुलना जैनाचार्यों ने बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद आदि प्रमुख सिद्धांतों से की है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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