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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
ऋजुसूत्रनय का लक्षण
अनुयोग सूत्र में ऋजुसूत्रनय का लक्षण करते हुये कहा गया है कि 'ऋजुसूत्रनय' विधि- प्रत्युत्पन्नग्राही अर्थात् वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला है।' विशेषावश्यक भाष्य भी इस बात का समर्थन करता है। दर्शन युग के लगभग सभी जैनाचार्यों ने इसी लक्षण को संक्षिप्त तथा विस्तार पूर्वक समझाया है। उनमें वाचक उमास्वामी", आचार्य सिद्धसेन", पूज्यपाद, अकलंक देवा, वीरसेन, विद्यानंद, देवसेना, सिद्धर्षि", माइल्लधवला, वादिराजसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि', मल्लिषेण तथा उपाध्याय यशोविजय प्रमुख हैं।
लघु अनन्तवीर्य के अनुसार 'प्रतिपक्ष की अपेक्षा रहित शुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र नय है। इस प्रकार का लक्षण मात्र इन्होंने ही किया। वैसे यहाँ शुद्धपर्याय से तात्पर्य वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्याय से ही है जिसका ग्रहण वर्तमान के क्षण मात्र में ही होता है। अत: लघुअनन्तवीर्य का अभिप्राय भी लगभग वही है जो अन्य जैनाचार्यों का है। ऋजुसूत्र नय के भेद
आचार्य सिद्धसेन ने ऋजुसूत्रनय को पर्यायास्तिक नय का मूल आधार कहा है और उसके बाद प्रवृत्त होने वाले शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूतनय को इसी ऋजुसूत्र नय के भेद के रूप में मान्यता दी है।
धवलाकार वीरसेनाचार्य ने सर्वप्रथम ऋजुसूत्रनय के दो भेद किये हैं- (1) शुद्ध ऋजुसूत्रनय (2) अशुद्ध ऋजुसूत्रनय। यहाँ जो सूक्ष्म सत् की स्वतंत्र सत्ता को विषय करता है उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय कहते हैं तथा जो विशेषों की एकता को ग्रहण करके उसकी स्वतंत्र सत्ता को विषय करता है उसे स्थूल ऋजुसूत्रनय करते हैं। अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय अर्थपर्याय को ग्रहण करता है और अशुद्ध ऋजुसूत्रनय व्यञ्जन पर्याय को ग्रहण करता है। आगे के आचार्यों में देवसेन तथा माइल्लधवल इसी प्रकार के भेद करते हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पर्याय के जितने भी प्रकार हो सकते हैं उनको नयवाद अपनी एक अभिव्यक्ति देता है। ऋजुसूत्र नय पर्याय को ही विषय करता है उसकी दृष्टि सम्यक् एकांत इसलिए है क्योंकि वह द्रव्य का निषेध नहीं करता बल्कि उसे गौण कर देता है। ऋजुसूत्रनयाभास और बौद्ध दर्शन
सन्मति प्रकरण में आचार्य सिद्धसेन ऋजुसूत्रनय (परिशुद्धपर्यायनय) के लिए कहते हैं कि शुद्धोदन के पुत्र अर्थात् बुद्ध का दर्शन इस नय का विकल्प है। अकलंकदेव के अनुसार ऋजुसूत्रनय पदार्थ की एक क्षण रुप शुद्ध वर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय को विषय करने वाला है। इसकी दृष्टि से अभेद कोई वास्तविक नहीं है चित्रज्ञान भी एक न होकर अनेक ज्ञानों का समुदाय मात्र है। इस तरह समस्त जगत एक दूसरे से भिन्न है। एक पर्याय दूसरी पर्याय से भिन्न है। यह भेद इतना सूक्ष्म है कि स्थूल दृष्टि वालो लोगों को मालूम नहीं होता। जैसे परस्पर में विभिन्न वृक्ष भी दूर से सघन तथा एकाकार रूप से प्रतिभासित होते हैं, ठीक इसी तरह अभेद एक प्रतिभासिक वस्तु है।