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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
इस नय की दृष्टि में एक या नित्य कोई वस्तु ही नहीं है, क्योंकि भेद और अभेद का परस्पर में विरोध है। इस तरह यह ऋजुसूत्रनय यद्यपि भेद को मुख्य रूप से विषय करता है पर वह अभेद का प्रतिक्षेप नहीं करता। यदि अभेद का प्रतिक्षेप कर दे तो बौद्धाभिमत क्षणिकत्व की तरह ऋजुसूत्राभास हो जायेगा। सापेक्ष ही नय होता है, निरपेक्ष दुर्नय कहलाता है। जिस प्रकार भेद का प्रतिभास होने से वस्तु में भेद की व्यवस्था है उसी प्रकार जब अभेद का प्रतिभास होता है तो उसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए। भेद और अभेद दोनों ही सापेक्ष हैं। एक का लोप होने से दूसरे का लोप हो जाना अवश्यंभावी है।
आचार्य विद्यानंद के अनुसार जो नय बाह्य और अन्तरंग द्रव्यों का सर्वथा निराकरण करता है, उसे ऋजुसूत्राभास मानना चाहिए, क्योंकि वह प्रतीति का अपलाप करता है। यही बात आचार्य प्रभाचन्द्र भी कह रहे हैं।
वादिदेवसूरि के अनुसारऋजुसूत्रनय द्रव्य को गौण करके पर्याय को मुख्य करता है, किन्तु ऋजुसूत्राभास द्रव्य का सर्वथा अपलाप कर देता है। वह पर्यायों को ही वास्तविक मानता है और पर्यायों में अनुगत रूप से रहने वाले द्रव्य का निषेध करता है। बौद्धों का मत क्षणिकवाद या पर्यायवाद ऋजुसूत्राभास है। मल्लिषेण भी कहते हैं कि बौद्ध लोग केवल ऋजुसूत्रनय मानते हैं। उपाध्याय यशोविजय भी यही मानते हैं कि केवल वर्तमान पर्याय को स्वीकार करने वाला और त्रिकालवर्ती द्रव्य का सर्वथा निषेध करने वाला ऋजुसूत्रनयाभास है, जैसे-बौद्धमत। बौद्धदर्शन की ऋजुसूत्रनय के संदर्भ में जैनदृष्टि से समीक्षा
ऋजुसूत्र नय की बौद्ध दर्शन से तुलना आचार्य विद्यानंद ने सर्वाधिक विस्तार से की है। उन्होंने बौद्ध दर्शन की समीक्षा करके उसका समावेश ऋजुसूत्रनयाभास में किया है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि अन्वयी द्रव्य का सर्वथा निषेध करने पर कार्यकारणपना, ग्राह्यग्राहकपना और वाच्य-वाचकपना नहीं बनता। तब ऐसी दशा में अपने इष्ट तत्त्व का साधन और पर पक्ष का दूषण कैसे बन सकेगा? तथा लोकव्यवहार सत्य और परमार्थ सत्य कैसे हो सकेंगे? जिसका अवलम्बन लेकर बुद्धों का धर्मोपदेश होता है। सामानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्यभाव, साध्यसाधनभाव, आधाराधेयभाव ये सब कहाँ से बन सकेंगे? संयोग, वियोग, क्रिया, कारक की स्थिति, सादृश्य, विसदृशता, स्वसंतान और परसंतान की स्थिति, समुदाय, मरणपना वगैरह और बन्ध मोक्ष की व्यवस्था कैसे बन सकेगी?
क्षणिकवादी बौद्ध का मत है कि सभी पदार्थ एक क्षणवर्ती हैं, दूसरे क्षण में उनका सर्वथा विनाश हो जाता है। यदि पदार्थों को एक क्षण से अधिक दो क्षणवर्ती मान लिया जायेगा तो उनका कभी भी नाश न हो सकने से कूटस्थता का प्रसंग आ जायेगा, और तब कूटस्थ पदार्थ में क्रम या अक्रम से अर्थक्रिया न होने से अवस्तुपना प्राप्त होगा। इस प्रकार बौद्ध स्थायी द्रव्य को नहीं मानते हैं। उनकी ऐसी मान्यता ऋजुसूत्रनयाभास है क्योंकि उक्त मान्यता प्रतीति विरुद्ध है।
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से प्रत्येक बाह्य और अन्तरंग द्रव्य पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय में अनुस्यूत