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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
पूजा के परिप्रेक्ष्य में जैनाचार्यों की विचारधारा
-डॉ. कुलदीप कुमार पूजा शब्द 'पुज + अ +टाप्' प्रत्यय से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- पूजा, सम्मान, आराधना, आदर, श्रद्धाञ्जलि, श्रद्धेय, आदरणीय, पूज्य, श्रद्धास्पद इत्यादि।'
'राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए 'जिन' पूजा प्रधान धर्म हैं, यद्यपि इसमें पञ्च परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर वहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से पूजा की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलदायी होती है। सचित व अचित द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि संबन्धी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है। पूजा के पर्यायवाची नाम
यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरोः मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः॥'
अर्थात्- याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। पूजा के भेद- इज्या आदि की अपेक्षा
प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च॥'
अर्थात्- पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम ओर अष्टाह्निका। निक्षेपों की अपेक्षा
णामट्ठावणा दव्वेखित्ते काले वियाणाभावे या छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहि।
अर्थात्- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्र देव ने कही है। द्रव्य व भाव की अपेक्षा
'पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति' अर्थात् पूजा दो प्रकार की- द्रव्यपूजा और भाव पूजा। श्रावकाचार संबन्धी ग्रंथों की पूजा पद्धति और दैनिक षट्कर्मों का विस्तार से वर्णन