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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 मिलता है। जैन वाडमय में देव, शास्त्र और गुरु की उपासना भक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और इन्हें श्रावक की दैनिक षट् क्रियाओं के अन्तर्गत प्रतिपादित किया गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र प्राभृत में तथा वरांगचरित और हरिवंशपुराण में दान, पूजा, तप और शील को श्रावकों का कर्तव्य बतलाया है। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि महाराज भरत ने पूजा, वार्त्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को व्रती लोगों का कुलधर्म बतलाया । यथा
इज्यां वार्तां च दत्ति व स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
श्रुतोपासकसूत्रत्वात् से तेभ्यः समुपादिशत् ॥
कुलधर्मों यमित्येषामर्हत्पूजादिवर्णनम्।
तदा राजर्षिरन्वेवोचदनुक्रमात् ॥
आचार्य पद्मनन्दि ने पञ्चविंशतिका में श्रावक के दैनिक षट्कर्मों का वर्णन इस पकार किया है
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।
अर्थात् जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप से छह कर्म गृहस्थों के लिए प्रतिपादित करने के योग्य हैं अर्थात् वे उनके आवश्यक कार्य है।
आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन में इसी प्रकार श्रावक के षट्कर्मों का उल्लेख किया है। 10
जैन वाङमय में श्रावक के लिए एक प्राचीन शब्द 'उपासक' का भी प्रयोग किया गया है तथा इसी आधार पर प्राकृत भाषा में 'उवासज्झयणं' और संस्कृत भाषा में ‘उपासकाध्ययन' नाम से श्रावकाचार विषयक ग्रंथों की रचना की गयी है। द्वादशांगश्रुत में 'उपासगदसांग" की स्वतंत्र रूप से गणना की गयी है। अर्द्धमागधी आगम उवासगदसाओ तीर्थंकर महावीर के दस उपासकों का वर्णन किया गया है, उपासकों के माध्यम से ही उपासक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। जैन गृहस्थ या उपासक की उपासना पद्धति क्या है, इस विषय में उपासकाचार या श्रावकाचार विषयक सभी ग्रंथों में संक्षिप्त रूप से या विस्तृत रूप से विवेचन किया गया है।
के प्रकार
पूजा
आचार्य सोमदेव ने पूजा के दो प्रकारों का उल्लेख करते हुए कहा कि - ' देवपूजा के दो रूप हैं- एक पुष्पादि में जिन भगवान की स्थापना करके पूजा की जाती है और दूसरे जिन बिम्बों में जिन भगवान की स्थापना करके पूजा की जाती है किन्तु जिस प्रकार पुष्प फल या पाषाण में स्थापना की जाती है उस तरह अन्य देव हरि-हरादिक की प्रतिमा में जिन भगवान की स्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसे शुद्ध कन्या में ही पत्नी का संकल्प किया जाता है दूसरे से विवाहित में नहीं, वैसे ही शुद्ध वस्तु में ही जिन देव की स्थापना करना उचित है, जो अन्यरूप हो चुकी है उसमें स्थापना करना उचित नहीं है । "