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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
आचार्य अमितगति ने पूजा के द्रव्य और भाव पूजा ये दो भेद किए हैं और कहा है कि वचन और शरीर को जिन भक्ति में लगाना द्रव्यपूजा है और मन को लगाना भावपूजा है। अथवा गंध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, अक्षत आदि से जिन पूजन करना द्रव्य पूजा है और मन को उसमें लगाना भावपूजा है। पूजा के उपरिलिखित प्रकार आचार्य अमितगति के पूर्व किसी श्रावकाचार में प्राप्त नहीं होते। __आचार्य पद्मनन्दि ने लिखा है कि- 'जो जिनदेव का दर्शन करते हैं, भक्ति से पूजा, स्तुति करते हैं, वे तीनों लोकों में दर्शनीय, पूज्य और स्तुत्य हो जाते हैं। जो जिन दर्शन नहीं करते हैं, उनका जीवन निष्फल है। उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।
धर्म और श्रुति के उपासकों को प्रातः उठकर देवता और गुरु का दर्शन करना चाहिए। भक्ति से उनकी वन्दना करनी चाहिए। उसके पश्चात् अन्य कर्त्तव्य कार्यों को करना चाहिए। क्योंकि विद्वानों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में सर्वप्रथम धर्म का उल्लेख किया है। आचार्य सोमदेव से पूर्व संभवतः किसी आचार्य ने अपने ग्रंथ में पूजा तथा पूजा विधि का इतना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन नहीं किया है। __आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य और प्रवचन भक्ति का निर्देश किया है तथा प्रवचनसार में देवता, यति और गुरु की पूजा का निर्देश किया है।
आचार्य रविषेण ने लिखा है कि जो जिन भगवान की आकृति के अनुरुप जिन बिम्ब बनवाता है तथा जिन भगवान की पूजा और स्तुति करता है, उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
आचार्य योगीन्द्र ने लिखा है कि तूने न तो मुनिवरों को दान ही दिया, न जिन भगवान की पूजा ही की ओर न पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया तब तूझे मोक्ष का लाभ कैसे होगा। ___ इसी प्रकार कालक्रमानुसार सभी श्रावकाचार रचयिता आचार्यों ने यथाशक्ति पूजा, पूजनविधि एवं पूजा के फलादि का विस्तृत वर्णन किया। आचार्य वसुनन्दि वसुनन्दिश्रावकाचार ग्रंथ में पूजन विधान का वर्णन करते हुए लिखते है। कि
जिणसिद्धसूरिपाठयसाहूणं जं सुयस्स विहवेण। कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहाणं॥ णामट्ठवणादव्वे खित्ते काले वियाण भावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं॥
अर्थात् अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की तथा शास्त्र की जो वैभव से नाना प्रकार की पूजा की जाती है, उसे पूजन विधान जानना चाहिए। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्रदेव ने कही है। यथा
उच्चारिऊण णामं अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि। पुष्पाणि जं खिविज्जति वणिया णामपूया सा।