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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अर्थात् अरहन्त आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, उसे नाम पूजा जानना चाहिए। स्थापना पूजा
सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जंगुणारोवणं पढमा॥ अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णिययबुद्धीए।
संकप्पिरूण वयणं एसा विइया असब्भावा॥ जिन भगवान ने सद्भाव और असद्भाव स्थापना ऐसी दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में जो अरहंत आदि के गुणों का आरोपण किया जाता है, पहली सद्भाव स्थापना पूजा है और अक्षत, वराटक आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, उसे दूसरी अर्थात् असद्भाव स्थापना जानना चाहिए तथा इस पंचम काल में दूसरी असद्भावस्थापना का निषेध बतलाते हुए लिखा कि इससे कुलिंग मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। तत्पश्चात् आचार्य ने सद्भावस्थापना पूजा में कारापरक (प्रतिमा) का लक्षण', इन्द्र का लक्षण, प्रतिमा विधान , प्रतिष्ठा विधान, का विस्तृत विवेचन किया है। द्रव्य पूजा
दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्व पूजा सा। दव्वेण गंधसलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा।
अर्थात् जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह जल गन्ध आदि पदार्थ समूह से (पूजन सामग्री) करनी चाहिए। तथा वह द्रव्य पूजा सचित, अचित और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की होती है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सचित पूजा है, जिन तीर्थकर आदि के शरीर की और द्रव्य श्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिखकर जो शास्त्र की पूजा की जाती है, वह अचित पूजा है और जो दोनों का पूजन किया जाता है, उसे मिश्र पूजा जानना चाहिए। तथा 'आगमद्रव्य, नो आगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्यनिक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए।" क्षेत्र पूजा जिणजम्मणणिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूया पूव्वविहाणेण कायव्वा।।
अर्थात् जिन भगवान की जन्म कल्याणकभूमि, निष्क्रमणकल्याणकभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्न, स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में विधानपूर्वक क्षेत्रपूजा करनी चाहिए अर्थात् वह क्षेत्रपूजा कहलाती है। काल पूजा
'कालपूजा का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि -जिस दिन तीर्थंकरों के