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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 गर्भावतार जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याण और निर्वाण कल्याणक हुए हैं उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षीर गन्ध और जल से परिपूर्ण विविध अर्थात् अनेक प्रकार के कलशों से, जिन भगवान का अभिषेक करें तथा संगीत, नाटक आदि के द्वारा जिन गुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वो में जो जिन महिमा की जाती है, उसे कालपूजा जानना चाहिए। भाव पूजा
भाव पूजा का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- परमभक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान के अनन्तचतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो तीनों कालों में वन्दना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। अथवा पञ्च णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करें। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान करने को भावपूजन जानना चाहिए। अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रुपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, उसे भी भावपूजा कहा गया है। तत्पश्चात् आचार्य ने क्रमशः पिण्डस्थ ध्यान का वर्णन", पदस्थ ध्यान का वर्णन", रूपस्थ ध्यान का वर्णन और रूपातीत ध्यान का वर्णन" किया। और अन्त में लिखा कि यह छह प्रकार की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्वदेशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करनी चाहिए। पूजा के फल
पूजा के फल का उल्लेख करते हुए में आचार्य लिखते हैं कि- 'ग्यारह अंग का धारक, देवों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहस्त्र जिह्वाओं से पूजा के समस्त फल का वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं है, तब मैं अपनी शक्ति के अनुसार थोड़े से वचन द्वारा कहूँगा, जिससे कि सभी भव्य जन धर्मानुराग में अनुरक्त हो जावें। तत्पश्चात् आचार्य पूजा के फल का विस्तृत वर्णन करते हुए कहते हैं कि
कुत्थंभरिदलभेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं। सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं॥ जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहितोरणसमग्गं। णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कई वण्णिउं सयलं।"
अर्थात् जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के दाने के बरारबर भी जिन प्रतिमा का स्थापन करता है, वह तीर्थकर पद पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसके समस्त फल का वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है। ___'पूजन के समय नियम से जिन भगवान के समक्ष जलधारा को छोड़ने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है तथा चन्दन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है। अक्षतों से पूजा करने वाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ अर्थात् रोग-शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न होता है और अन्त में अक्षय मोक्ष सख को प्राप्त होता है।'