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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 स्थापना 12 नवम्बर 1962 संवत् 2019 में की गई।
मंदिर नं.13:- यह बड़े मंदिर के नाम से विख्यात है। यहाँ क्षेत्र के मूल नायक श्री संभवनाथजी की 3फुट 1इंच श्वेताश्म पद्मासन मुद्रा में ध्यानावस्थित अतिप्राचीन भव्य प्रतिमा वि.सं. 1951 में प्रतिष्ठित है। पार्श्व में भगवन् संभवनाथ तथा चन्द्रप्रभु की श्वेतवर्णी प्रतिमा सहित अष्टधातु की 37 प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित है। यहाँ पांच वेदिया है। यहाँ भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजी की गादी भी विद्यमान है तथा गणिनी, आर्यिका, ज्ञानमति की प्रेरणा से निर्मित हस्तिनापुर के जम्बुदीप रचना की प्रतिकृति स्थापित है।
कष्ट निवारक कुंड तथा प्राचीन पाण्डकुशिला:- सिद्धवरकूट क्षेत्र के समीप सर्वरोगमुक्ति तथा कष्ट निवारक कुण्ड स्थित है। कुण्ड के समीप ही अति प्राचीन पाण्डुकशिला है जो पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
महावीर वाटिका:- सिद्धवरकूट क्षेत्र के मुख्य द्वार के सामने महावीर वाटिका है। इस मनोहर वाटिका में मुनि श्री 108 बाहुबली सागर महाराज की समाधि पर सुन्दर चरण और छत्री बनी हुई है। यह मुनिश्री 108 आनन्दसागर जी महाराज का भी समाधिस्थल है।
स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से सिद्धवरकूट अनुपम है। प्रतिमाओं के भव्य रूप में भावाभिव्यंजना का भी सजीवांकन है। मंदिर के उन्नत शिखर अत्यन्त मनोज्ञ है। मंदिर में चित्रों का अंकन और वर्णसंयोजन नयनाभिराम है। मंदिर की वेदियां, द्वार, यक्ष-यक्षी, शासनदेवी, चंवरधारी, लांक्षन, चिह्न आदि का शिल्पांकन चित्ताकर्षक है।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन चतुर्दशी से प्रारंभ होकर त्रिदिवसीय मेला लगता है। इसमें ध्वजारोहण, पूजन, विधान, प्रवचन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। असंख्य यात्री दर्शनलाभ लेते हैं। आबालवृद्ध नौकाविहार का आनन्द लेते हैं। ओंकारेश्वर बाँध बनने से यह सुन्दर प्राकृतिक पर्यटन स्थल बन गया है। यहाँ बना हुआ झूला पुल तथा बाँध पर बना हुआ पुल दर्शनीय है। यहाँ विशाल जलाशय भी बन रहा है। पनबिजली योजना का कार्य क्रियाशील है।
त्यागी व्रतियों एवं मुनियों हेतु समुचित व्यवस्था है। यात्रियों के आवास की भी सर्वसुविधायुक्त संपूर्ण व्यवस्था है।
नर्मदा के एक तट पर सिद्धवरकूट है तो दूसरे तट पर ओंकारेश्वर। जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट का वैदिक परंपरा के तीर्थ एवं द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर से गहरा ऐतिहासिक संबंध है। संपूर्ण क्षेत्र पूर्व में मांधाता के नाम से प्रख्यात था, इक्ष्वाकुवंशी राजा मान्धाता तथा चक्रवर्ती मघवा संभवतः एक ही हो सकते हैं। ओंकारेश्वर की पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष है जो पुरातत्त्व विभाग के अन्तर्गत है । जहाँ खुदाई से जैन कलावशेषों के प्रचुर प्रमाण मिलना संभावित है। पुरातात्विक, ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य एकत्र कर सिद्धवरकूट के समग्र वैभव को ज्ञात करना गहन शोध का विषय है।
सिद्धवरकूट सिद्धत्व और साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन है। मूर्ति एवं मंदिर