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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009
जा रही है। तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह बताया गया है कि धर्म के लोक कल्याणकारी स्वरूप को युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में उद्घाटित करने की वक्तृत्व क्षमता धर्मप्रवक्ताओं में शिथिल होती जा रही है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार ये ही तीन मुख्य कारण हैं। जिनकी वजह से व्यक्ति स्वातंत्र्य को सर्वाधिक महत्त्व देने वाला जैन धर्म जैसा सर्वोदयी समाज व्यवस्था से जुड़ा धर्म भी विश्वव्यापी नहीं बन पाया है।
कालः कलियां कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनान् यो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ।।'
बीसवीं शताब्दी के युगद्रष्टा, राष्ट्र सन्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म की दशा और दिशा का आकलन करते हुए अपने 'उपदेश सार संग्रह' नामक ग्रन्थ में यह उद्गार व्यक्त किया है कि 'जगत का सबसे अधिक लाभ करने वाला, प्राणिमात्र का उद्धार करने वाला, साधारण आत्मा को महात्मा और परमात्मा बना देने की क्षमता रखने वाला, सदाचार को आरम्भ से लेकर सर्वोच्च सीमा तक ग्रहण, धारण, पालन, रक्षण करने की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से बनाने वाला धर्म 'जैन धर्म' है। जिसको कि हमारे पूज्य तीर्थङ्करों ने अपने सांसारिक सुखमय राज्य, भोग, परिवार का परित्याग करके शारीरिक मोह से विरक्त होकर वन, पर्वत, गुफा आदि एकान्त प्रान्त में कठोर तपस्या और महान् परिषह संग्रह करने के पश्चात् आत्मा की पूर्ण शुद्धि के अनन्तर स्व-अनुभव से प्राप्त किया था और उस विश्व हितकारी धर्म को जनता के समक्ष बड़ी उदारता के साथ जनसाधारण की वाणी में रखकर उस जैन धर्म का प्रचार किया था।' पर आचार्य श्री ने चिन्ता यह व्यक्त की है कि 'विश्व उद्धारक उस जैन धर्म का प्रचार जिस तरह भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर तक हमारे परम पूज्य 24 तीर्थङ्करों ने तथा उनके उत्तरवर्ती उनकी शिष्य परम्परा ने किया और उसे विश्व व्यापक बनाया, वह व्यापक प्रचार आज नहीं पाया जाता है। विभिन्न धर्मानुयायी अपने गुड़ को भी मिश्री के रूप में संसार के सामने अपने अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं तब जैन समाज अपने मिश्री के समान अन्दर-बाहर से पूर्ण मिष्ट जैन धर्म को भी संसार के समक्ष यथेष्ट रूप से रखने में संकोच क्यों कर रहा है?"
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आचार्य श्री देशभूषण जी ने श्री समन्तभद्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त धर्म के हास से सम्बन्धित तीन कारणों की जांच पड़ताल करते हुए कहा कि पहले दो कारणों का सुधार करना हमारे हाथ में नहीं क्योंकि कलिकाल को हम किसी तरह चौथा काल नहीं बना सकते परन्तु इतना अवश्य है कि इस कलिकाल में भी सत्यखोजी और भद्रपरिणामी सज्जनों की कमी नहीं है जो अपने बहु आयामी धर्म-दर्शन, बहुभाषा ज्ञान तथा प्रभावशाली वक्तृत्व शक्ति के द्वारा जैन धर्म को लोकप्रिय बना सकते हैं। यदि कोई प्रचारक जनता के समक्ष जैन धर्म के सत्य सिद्धान्तों का अच्छे ढंग से प्रचार करे तो इस कलिकाल में भी भद्र जनता जैन धर्म को हृदय से स्वीकार कर सकती है और उस पर आचरण भी कर सकती है।
दरअसल, आचार्य श्री देशभूषण जी आधुनिक युगमूल्यों के सन्दर्भ में जैन धर्म के