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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
जैन धर्म में स्वातन्त्र्य चेतना
डॉ० मोहन चन्द व्यक्ति स्वातंत्र्य का विचार आधुनिक युग का अत्यन्त क्रांतिकारी और लोकप्रिय विचार माना जाता है। भारत सहित विश्व के अनेक देशों में व्यक्ति स्वातन्त्र्य का अधिकार (राइट टू फ्रीडम) को संविधान की पुस्तकों में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है जिसका तात्पर्य है कि धर्म और समाज की परम्परागत मान्यताएं भी कानूनी दृष्टि से संविधान प्रदत्त मनुष्य के इस व्यक्ति स्वातंत्र्य सम्बन्धी मौलिक अधिकार पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। कितनी विडम्बना है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य का विचार छठी शताब्दी ई० पूर्व में सर्वप्रथम भगवान् महावीर ने दिया था किन्तु आज पश्चिम के अस्तित्ववादी तथा साम्यवादी दर्शन इसे अपना बताकर भौतिकवाद का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। आज विज्ञान द्वारा आविष्कृत नवीन अवधारणाओं और पश्चिमी संस्कृति के परिवेश में पाली-पोसी गई देहवादी दार्शनिक मान्यताओं के परिणाम स्वरूप ईश्वरवाद
और अध्यात्मचेतना के स्थान पर अब क्रमशः व्यक्तिवाद और भौतिकवादी चेतना को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जा रहा है। जगद् गुरु के नाम से विख्यात यह भारत जैसे अध्यात्मवादी देश के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि धर्म की प्रभावना से समूची मानव सभ्यता को सुसंस्कृत और संस्कारवान बनाने का जो सामाजिक दायित्व हजारों वर्षों से हमारे देश के ऋषि-मुनियों तथा वीतरागी तपस्वियों के द्वारा निर्वाहित किया जाता रहा है, तुच्छ उपभोक्तावाद की जमीन पर उपजने वाले ये भौतिकवादी दर्शन भारतीय धर्म-चिन्तन पर अनेक प्रकार के प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। आज उपभोक्तावादी जीवन दर्शन ने हम सबको इतना संमोहित कर लिया है कि सैक्स और हिंसा को अश्लील एवं बीभत्स रूप से परोसने वाले टी०वी० चैनलों की टी०आर०पी० दिनों दिन बढ़ती जा रही है तथा धर्म और संस्कृति से जुड़े चैनलों का ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर भी गहराई से विचार किया जाना चाहिए कि भारतवर्ष के तमाम धर्म और दर्शन सत्य, अहिंसा अपरिग्रह आदि सभ्यता के मूल्यों को आज सामाजिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में अप्रासंगिक क्यों सिद्ध हो रहे हैं?
धर्म के प्रति जनसामान्य की अरुचि या उदासीनता के बारे में जैनाचार्य समन्तभद्र ने तीन कारणों की ओर संकेत किया है जिन्हें जानना आधुनिक युग सन्दर्भो में धर्म संस्था के ह्रास को समझने के लिए बहुत जरूरी है। इनमें से पहला कारण है कलिकाल का दुष्प्रभाव जिसके कारण लोक कल्याणकारी सत्य धर्म का प्रसार कठिन होता जा रहा है। दूसरा कारण है रागद्वेष से कलुषित मनोवृत्ति वाले लोगों में आत्मकल्याण के प्रति जिज्ञासा का अभाव, जिसके फलस्वरूप धर्मोपदेशों के प्रति लोगों की रुचि और आस्था कम होती