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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 न कि गृहस्थ व्यक्ति जो निरंतर सांसारिक भोगों में लिप्त है। जो विरत हैं, वे कहते हैं कि समिति और व्रत पालक मुनि तो पापी हैं और हम सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसे लोग संयम द्वेषी हैं, मुनि द्रोही हैं। संयम द्वेषी सम्यग्दृष्टि कदापि नहीं हो सकता। रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिसके रागादि भावों का अणुमात्र भी विद्यमान है, वह भले ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता हो, फिर भी आत्मा को नहीं जानता है और वह आत्मा का न जानता हुआ अनात्मा को भी नहीं जानता है, वह जीव-अजीव को नहीं जानता हुआ सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?" गाथा संख्या 201 में "सव्वागमधरो वि' पद है जिसका अर्थ अमृतचन्द्रसूरि 'श्रुतकवेली सदृश' करते हैं। श्रुतकेवली भवलिंगी मुनि ही होते हैं, वे तो सम्यग्दृष्टि नियम से होंगे, उनमें सम्यक्त्वपने का सन्देह असंगत है अत: माता जी ने इस विषय को बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण दिया है कि दिगम्बर मुद्राधारी कोई कोई ग्यारह अंग चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली होते हैं वे भावलिंगी मुनि ही होते हैं अतः सर्वागम से ग्यारह अंग 10 पूर्व तक का ही ज्ञान लेना चाहिए तथा च. जो राग का अणुमात्र भी न होने से सम्यग्दृष्टि कहा है वे सम्यग्दृष्टि ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में वीतरागी ही होंगे। दसवें गुणस्थान तक के सरागी मुनि कथमपि नहीं होंगे। इस प्रकार से "ज्ञान ज्योति" नामक इस टीका में अन्य भी अनेक सैद्धांतिक विषयों को स्पष्ट किया गया है। पूरा का पूरा टीका ग्रंथ अपने आप में अद्भुत है। समयसार के हार्द को प्रस्फटित करने में पूर्णरूपेण समर्थ है। माता जी ने इसमें किसी भी रूप में कमी नही रहने दी है। जहाँ माता जी का पूजा साहित्य समृद्ध है, वहाँ उनका टीका साहित्य भी अपूर्व है। संस्कृत काव्य जगत् में टीकाकार के रूप में जो ख्याति मल्लिनाथ को मिली साहित्यशास्त्र के टीकाकार के रूप में अभिनव गुप्त को मिली उनसे भी अधिक संस्कृत और हिन्दी टीका करने में आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी की कीर्ति है। यद्यपि माता जी की दार्शनिक ग्रंथों की टीकाओं ने विद्वानों को उनका चरण चञ्चरीक बना दिया और अध्यात्मिक ग्रंथों में नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका और हिन्दी टीका महत्वपूर्ण है। समयसार की ज्ञानज्योति टीका की प्रंशसा के लिए शब्द नहीं हैं निश्चित रुप से सुधीजन इसका आदर के साथ पठन-पाठन करके आध्यात्मिक रहस्यों को आत्मसात् करेंगे। अध्यात्म विषयों की प्रतिपादिका यह टीका मुक्ति पथिकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। संदर्भ (1) ज णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेळं। तह व्यवहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।।8।।समयसार (आ. ता.) (2) ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।।11।। समयसार (आ.)
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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