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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 किया गया है। इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषय भोगों से पराभूत होने की मानवीय दुर्बलता को विदेशी शासन की गुलामी के रूपक में बांधा गया है। विदेशी सत्ता का तन और मन दोनों पर अधिकार हो गया है। इस परतन्त्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ, मानव भोग विलास के पुष्प सौन्दर्य से मोहित है और कैद कर लिया गया है। रूप, रस, गन्ध के कंटीले तारों से उसकी स्वतन्त्रता अवरुद्ध हो गई है। स्वतंत्रता, मुक्ति, आलोक, और समता से वंचित मानव मन अपने विषय भोगों की लोलुपता के कारण दासता की जंजीरों में जकड़ता ही जा रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में आचार्य देशभूषण जी के 'उपदेश सार संग्रह' की ये काव्य पंक्तियां दर्शनीय हैं -
ओ बन्दी ! तू पूछता है - पराजय क्या है ? पराजय है विदेशी सत्ता के सामने आत्मसमर्पण ! विदेशी तेरे देश के हर कोने में घुसता जा रहा है
औ सोख रहा है तेरी देह से अनवरत रक्त। यही रक्त सींच रहा है विदेशी शासन के तरुमूल को ताकि उसमें खिल सकें तरह तरह के रंग बिरंगे फूल। देख! यही तेरी परतन्त्रता है। विदेशी किस्म के फल-फूलों ने तुझे इतना लुभाया है देख! यही है तेरी परतन्त्रता का हेतु। विदेशी सेना तुझे एक ऐसे दुर्ग में बन्दी बना चुकी है जिसके पांचों द्वारों में लगे हैं कंटीले तारों के घने जाल।
ओ बन्दी ! माना शासक उदार दिल का है तो बहुत कुछ सुविधाएं भी मिल सकती हैं। फिर भी देख बन्द ही पड़े हैं स्वतन्त्रता के द्वार। फूलों की जिस सेज में तू सोया है इनके केशर में उलझ गए हैं तेरे पैर।
जरा देख बन्द ही पड़े हैं, मुक्ति के द्वार। ___ 'जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि' में डॉ० दयानन्द भार्गव का मन्तव्य है कि 'जैन ध म का वास्तविक सन्देश व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। समय का प्रभाव, प्रकृति, परिस्थिति, पूर्वकर्म, जन्म ये सब गौण हैं, व्यक्ति प्रधान है। जो व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति पर विश्वास खो देता है उसे ये बाह्य परिस्थितियां दबोच लेती हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा पैदा किए हुए जाले में स्वयं फंस जाती है, उसी प्रकार व्यक्ति अपनी ही पैदा की हुई परिस्थितियों में स्वयं फंस जाता है और जिस प्रकार वह मकड़ी अपने फैलाए हुए जाल को स्वयं ही समेट सकती है, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी फैलायी हुई परिस्थितियों का स्वयं ही अन्त कर सकता है। 14