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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 जैनधर्म चिन्तन और सामाजिक विज्ञान -प्रो. दयानन्द भार्गव सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि ___1.1 हमारी किसी भी क्रिया अथवा विचार से हम स्वयं भी प्रभावित होते हैं और संपर्क में आने वाले दूसरे प्राणी भी प्रभावित होते हैं। जब हम क्रोध करते हैं तो उस क्रोध से स्वयं हमारे अन्दर भी कुछ परिवर्तन आते हैं और जिस पर हम क्रोध करते हैं उसमें भी हमारे क्रोध की कुछ प्रतिक्रिया होती है। ___1.2 हमारी क्रिया अथवा विचार का हम पर क्या प्रभाव पड़ा- इसका विवेचन धर्म करता है। हमारी क्रिया अथवा विचार का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ा- इसका विवेचन सामाजिक विज्ञान करता है। इस प्रकार धर्म चिंतन और सामाजिक विज्ञान का परस्पर घनिष्ठ संबन्ध होता है। 1.3 जैन परम्परा दो नयों की चर्चा करती है- निश्चयनय और व्यवहारनय। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार निश्चय स्वाश्रित अथवा आत्माश्रित है और व्यवहार पराश्रित हैआत्माश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहारः। __1.4 धर्म क्योंकि आत्माश्रित दृष्टि से देखता है अतः उसके लिये निश्चय परमार्थ है और व्यवहार अभूतार्थ है। लेकिन यह सत्य का एक आयाम है। सत्य का दूसरा आयाम यह है कि धर्म का प्रतिपादन प्राणी के लिय है और प्राणी न केवल आत्मा है, न केवल शरीर। आत्मा की स्थिति स्वाश्रित है, किन्तु शरीर पराश्रित है। हमारा शरीर वायु के बिना नहीं टिक सकता। उसके लिए जल और भोजन भी आवश्यक है। अतः हमारे शरीर की स्थिति पराश्रित ही है। अतः प्राणी के लिये जिस धर्म का प्रतिपादन किया जाये उस धर्म में केवल आत्मा की चिन्ता ही नहीं रहेगी अपितु पर की चिन्ता भी रहेगी। जैनधर्म का चिंतन भी इसका अपवाद नहीं है अन्यथा उमास्वाति जीवों के परस्पर उपग्रह की बात न करते- परस्परोपग्रहो जीवानाम्। ___1.5 और प्राणियों को छोड़कर अभी हम मनुष्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। मनुष्य दो धरातलों पर जीता है- आत्मा के धरातल पर और शरीर के स्तर पर। आत्मा के धरातल पर वह यह अनुभव करता है कि वह अकेला है; उसके सुख दु:ख का दायित्व स्वयं उस पर है- अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण या शरीर के स्तर पर वह अनुभव करता है कि उसे निरंतर दूसरों का सहयोग चाहिए। एक अनुभव से उसमें स्वावलम्बन का भाव जागता है, दूसरे अनुभव से उसमें संविभाग का भाव जागता है। 1.6 'मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिये'-यह अनुभूति इस अनुभूति से मेल नहीं
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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