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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सब्वहा वयणा। जैणाणां पुणं वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥ 20
दरअसल, जैन दृष्टि से स्वतन्त्रता मुक्ति की ओर ले जाने वाली एक दार्शनिक अवधारणा है। स्वतंत्रता का अर्थ है कि कोई दूसरा मेरे मार्ग में बाधा न बने और मैं भी किसी के मार्ग में बाधा न बनूँ। मैं दूसरे के मार्ग में द्वेष करके ही बाधा नहीं बनता बल्कि राग करके भी बाधा पहुंचाता हूं। इसी प्रकार दूसरे भी राग या द्वेष से मेरी स्वतन्त्रता में बाधक बन जाते हैं। मैं किसी से न राग की अपेक्षा करूं और न द्वेष की किन्तु यह तभी सम्भव है जब मुझे अपनी स्वयं की शक्ति पर विश्वास हो। इसी स्वावलम्बन को जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य चेतना के नाम से जाना जाता है। मनुष्य परावलम्बी इसलिए होता है क्योंकि वह अपने आन्तरिक अभावों को बाह्य पदार्थों के संग्रह द्वारा छिपाना चाहता है। मनुष्य में जब प्रेम का अभाव होता है तो वह स्त्री, पुत्र और सम्बन्धियों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित करके प्रेमाभाव की पूर्ति करने का प्रयास करता है। मनुष्य में जब ज्ञान का अभाव होता है तो उसकी पूर्ति के लिए उसे शास्त्रों, गुरुओं तथा ज्ञान के अन्य संसाधनों की शरण में जाना पड़ता है। पर ये सभी बाह्य पदार्थ और संसाधन मनुष्य को परावलम्बी और परतन्त्र बनाते हैं।
आचार्य श्री देशभूषण जी की निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में मानव की इसी विवशता अथवा परवशता का वर्णन है जहां मनुष्य स्वतन्त्र या मुक्त होने की लालसा तो रखता है। किन्तु कजरारे आखों की घनघटा और गगनचुम्बी अट्टालिकाओं ने उसके ज्ञान और पारदर्शी सम्यक् दृष्टि को कैद कर लिया है तथा सुनहरे सपनों की मादकता से उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं -
ओ सर्वज्ञ! मैं तेरा मार्ग कैसे जानूँ ? देखो न ! ये कजरारे बादल मंडरा रहे हैं ! ढांक दिया है इन्होंने मेरी आंखों के प्रकाश को !
ओ सर्वदर्शिन् ! मैं तुझे अब कैसे देखू ? देखो न इन गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को कैद कर ली है इन्होंने मेरी पारदर्शी दृष्टि को
ओ निर्विन ! मैं तेरे पास कैसे आऊँ? तेरे सिंहद्वार पर बैठे हैं भयंकर प्रहरी ! बिछा दिए हैं जिन्होंने कांटों के कंटीले जाल
ओ वीतरागी ! मैं तेरे पथ पर कैसे चलूँ ? उन्मत्त हो चुका हूँ सुनहरे सपनों की मादकता से मैं आना चाहता हूं, मगर पैर लड़खड़ा रहे हैं। आचार्य श्री देशभूषण जी ने अपने 'उपदेश सार संग्रह' में मछियारे की लड़की और