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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 सामान्य रूप से तथा पृथक्-पृथक् जानने के उपरान्त उसके एक एक धर्म के अन्य धर्म सापेक्ष विशिष्ट को जानने पर ही हो सकता है। ___ यदि व्यक्ति ज्ञान के इस स्तर की प्राप्ति तक धैर्य नहीं बनाये रखे तथा वस्तु की कुछ ही विशेषताओं के वर्णन को सुनकर उत्पन्न हुए अपने आंशिक ज्ञान से संतुष्ट हो जाय अथवा वस्तु की समस्त विशेषताओं को परस्पर निरपेक्ष रूप से जान कर अपने ज्ञान को पर्याप्त मान ले तो उसका यह ज्ञान मिथ्या है तथा उसके अनुसार कार्य करने पर भी असफलता की ही प्राप्ति होगी। जैसे यदि एक मजदूर को भवन निर्माण की जिम्मेदारी दे दी जाये तो वह इस जिम्मेदारी का सफलता पूर्वक निर्वाह नहीं कर सकता क्योंकि यद्यपि यह भवन निर्माण के सभी चरणों को जानता है लेकिन वह उन्हें परस्पर निरपेक्ष स्वरूप में ही जानता है तथा उनके परस्पर सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप को जानने की क्षमता उसमें नहीं है। इसलिये वह कार्य करते हुए सही ढंग से यह तय नहीं कर सकता कि इस जमीन से इतनी ऊँचाई वाले भवन के लिये कितनी गहरी नींव होनी चाहिये; वह भवन की नीवें नीचे वाली दीवार की स्थित, दीवार के उद्देश्य आदि अनेक बातों को दृष्टि में रखते हुए एक विशेष दीवार के विशिष्ट स्वरूप को तय नहीं कर सकता। भवन निर्माण के क्षेत्र में एक कुशल कारीगर का ज्ञान ही प्रमाण ज्ञान है क्योंकि वह इसके सभी चरणों को परस्पर सापेक्ष स्वरूप में जानता है।
व्यक्ति भाषा द्वारा किसी क्षेत्र में प्रमाण ज्ञान प्राप्त कर सके इस उद्देश्य से नय को परिभाषित करते हुए समन्तभद्राचार्य कहते हैं, "स्याद्वाद द्वारा प्रविभक्त अर्थ के एक विशेष अंश का व्यजंक नय है।" इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते है स्याद्वाद सामान्य रूप से अनेकान्त का वाचक है। इसके द्वारा अनुमित अनेकान्तात्मक वस्तु ही स्याद्वाद से प्रविभक्त अर्थ है। सद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप का ज्ञान हो जाने मात्र से यह ज्ञान नहीं हो पाता कि वस्तु में कौन-कौन से अनेक धर्म है तथा वे किस प्रकार परस्पर सम्बन्धित होकर एक वस्तुरूपता को प्राप्त कर रहे है। इसलिये स्याद्वाद् सामान्य रूप से वस्तु परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप का ज्ञान कराने के उपरान्त एक एक नय द्वारा क्रमिक रूप से उसकी एक एक विशेषता का वर्णन करता है। इस 'स्यात्' वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप का ज्ञापक होने के कारण प्रमाण अर्थात सकलादेशी ज्ञान स्वरूप है। तथा इस प्रमाण ज्ञान पूर्वक वस्तु के एकांश के प्रकाशक नय ज्ञान की उत्पति होती है। इसलिये इस स्याद्वादनयसंस्कृत ज्ञान को प्रमाणनयसंस्कृत कहा जाता है यह युक्ति और शास्त्र से अविरोधी होने के कारण प्रमाण (यथार्थ ज्ञान) है। ___ जो व्यक्ति स्याद्वाद को एक कथन पद्धति के रूप में स्वीकार करता है वह भाषा द्वारा ज्ञानार्जन प्रारम्भ करने से पूर्व ही वस्तु अनेकान्तात्मक स्वरूप से परिचित होता है। वह सामान्य रूप से इस तथ्य को जानता है कि एक वस्तु का स्वरूप उसकी अनेक विशेषताएं हैं जो नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा परस्पर निरपेक्ष होते हुए भी सत्तापेक्षया परस्पर