________________
अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
विशेषण है। यह सर्वथा एकान्त के त्याग स्वरूप है तथा कथंचित रूप से अर्थ का प्रतिपादन करता है।''17 जैन आचार्यों के अनुसार प्रत्येक वाक्य के पूर्व विद्यमान स्यात् पद के दो कार्य हैं (1) यह अनेकान्त के द्योतक के रूप में उद्देश्य के अनेकान्तात्मक-परस्पर सापेक्ष अनेक धर्ममय एक धर्मीरूप स्वरूप, उसके सामान्यविशेषात्मक और परिवर्तनशील स्थायी स्वरूप की ओर संकेत करता है तथा (2) गम्य अर्थ के प्रति विशेषण के रूप में यह विधेय पद को सीमित या विशेषित करने का कार्य करता है। इस कार्य को वह कथंचित् रूप से अर्थ का प्रतिपादन करते हुए करता है। कथंचित् शब्द का अर्थ है 'किसी निश्चित अपेक्षा से'। यह 'अपेक्षा' व्यक्तिगत दृष्टिकोण का सूचक न होकर इस बात का सूचक है कि उद्देश्य के प्रति किया जा रहा विधान सर्वथा सत्य न होकर एक विशेष परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही सत्य है तथा उद्देश्य में वर्णित धर्म के अतिरिक्त धर्मों का भी सद्भाव है जिनसे सापेक्ष रूप से ही यह विधान सत्य है। कथंचित् स्यात् का पर्यायवायी है तथा स्यात् के दोनों कार्यों-उद्देश्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप की ओर संकेत तथा विधेय द्वारा जाने जा रहे उद्देश्य के एक अंश के प्रति विशेषण को सम्पादित करता है। __ जो व्यक्ति विशेषज्ञ के परामर्श स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करता है वह यह ध्यान रखता है कि यह कथन सर्वथा सत्य न होकर एक निश्चित अपेक्षा से ही सत्य है तथा अन्य अपेक्षा से असत्य भी है। इसलिये वह विशेषज्ञ द्वारा किये जा रहे विधान को निर्विशेष रूप से सत्य न मानकर उसके विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिये प्रवृत्त होता है तथा उस कथन को सर्वथा सत्य मानकर उसके अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में समान रूप से कार्य करने की गलती नहीं करता। जैसे यदि गुरु द्वारा योग साधक को प्राणायाम जैसी किसी क्रिया के करने हेतु निर्देश देते समय उस क्रिया का सामान्य रूप से ही वर्णन कर दिया जाय तो उस वर्णन को स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करने वाला साधक सामान्य रूप से उस क्रिया के सामान्यविशेषात्मक स्वरूप से परिचित होने के कारण यह जानता है कि शुद्ध सामान्य की सत्ता नहीं होती वह (सामान्य) परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार सदैव किसी न किसी विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होकर अस्तित्व रखता है तथा उसके भिन्न भिन्न विशेष स्वरूपों के भिन्न भिन्न प्रभाव होते हैं। इसलिये वह गुरु से उस क्रिया के विशेषणों, कि उसे यह क्रिया कब, कितनी देर तक, किस प्रकार सम्पादित करनी चाहिये, को जानने के लिये प्रवृत्त होता है तथा उस क्रिया को किसी भी मनचाहे ढंग से सम्पादित करने की गलती नहीं करता।
शब्द प्रमाण किसी विशेष समस्या के समाधान हेतु विशेषज्ञ का परामर्श प्राप्त करने का ही साधन नहीं है बल्कि यह किसी क्षेत्र विशेष में विशेषज्ञता अर्जित करने का एक मात्र माध्यम भी है। भाषा द्वारा प्रारम्भ में ही एक वस्तु के परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप तथा उन धर्मों के सामान्य स्वरूप के भिन्न-भिन्न आन्तरिक बाह्य स्थितियों के अनुसार होने वाले भिन्न-भिन्न विशिष्ट स्वरूप को अभिव्यक्त किया जा सकना सम्भव नहीं है। उसके इस अनेकान्तात्मक स्वरूप का ज्ञान प्रारम्भ में उसके एक-एक धर्म को